दक्षिण में हिन्दी से घृणा नहीं बल्कि अगाध प्रेम,कहा कन्नड़ लेखिका ललिताम्बा ने

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सुधीर मधुकर.पटना. दक्षिण भारत में हिन्दी से घृणा नही, अपितु अगाध प्रेम है। केरल और कर्नाटक में तो ललक के साथ हिन्दी सीखी जाती है। हिन्दी-लेखन में भी उत्साह से कार्य हो रहे हैं। हिन्दी को मातृ-भाषा और राष्ट्र-भाषा का स्थान और सम्मान प्राप्त है। संपूर्ण दक्षिण भारत में, अपवाद को छोड़कर, हिन्दी की उन्नति और प्रचार के कार्य हिन्दी प्रदेश माने जाने वाले प्रांतों की तुलना में अधिक उत्साह के साथ हो रहे हैं।

यह विचार गत रविवार की संध्या, साहित्य सम्मेलन में आयोजित व्याख्यान में, कन्नड़ और हिन्दी की विदुषी लेखिका डा बी वाई ललिताम्बा ने व्यक्त किये। अहिल्या देवी विश्वविद्यालय,इंदौर में तुलनात्मक भाषा और साहित्य विभाग की अध्यक्ष और संकायाध्यक्ष रह चुकी व देश-विदेश में हिन्दी का ध्वज लहारा रहीं डा ललिताम्बा न केवल हिन्दी में अधिकार पूर्वक बोलती-लिखती हैं, बल्कि इसे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने की सबसे समर्थ भाषा मानती हैं। उन्होंने कहा भी कि, राष्ट्रीय भावना को मजबूत करने तथा उसे एक सूत्र में बांधने के लिये निश्चित रूप से एक भाषा का होना आवश्यक है। हिन्दी को उसके गुणों के कारण हीं भारत के माहापुरुषों ने देश की संपर्क-भाषा के रूप में चुना। यह हमें भाइचारा सिखाती है। दक्षिण में हिन्दी के लिए जो कार्य हो रहे हैं, उत्तर के लोगों को उसे समझना और सम्मान देना चाहिए। यह भ्रांति दूर हो जानी चाहिए कि दक्षिण में हिन्दी के प्रति घृणा है या जान-बूझ कर वे इसकी उपेक्षा करते हैं।

इसके पूर्व सम्मेलन-अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने उन्हें वंदन-वस्त्र तथा पूष्प-हार देकर सम्मेलन की ओर से अभिनंदन किया। इस अवसर डा सुलभ ने कहा कि भारत की सभी भाषाएं मातृवत पूज्या हैं। देश की सभी लोक-भाषाएं, उन पुण्य-सलीला सरिताओं की तरह हैं,जिनके मिलने से हिन्दी रुपी गंगा समृद्ध होकर विशाल और व्यापक रूप लेती है। हिन्दी को संपूर्ण भारतवर्ष राष्ट्र-ध्वज की तरह राष्ट्र-भाषा के रूप में आदर देता है तथा इसमे बोलना-लिखना गौरव की बात समझता है। भेद की बातें कर भ्रांति फ़ैलाने वाले तत्त्वों से सावधान रहने की आवस्यकता है। कोई अपनी मातृ-भाषा से अधिक प्रेम रखे तो यह स्वाभाविक है। इसका अर्थ किसी अन्य भाषा का विरोध नही है।

आरंभ में हिन्दी के विद्वान समीक्षक डा शिववंश पाण्डेय ने डा ललिताम्बा का परिचय देते हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गौरवशाली इतिहास का भी संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया।

इस अवसर पर मगध विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा मेजर बलबीर सिंह ‘भसीन’, आचार्य श्री सुदर्शन, डा रवीन्द्र राजहंस, डा मिथिलेश कुमारी मिश्र, सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेन्द्र नाथ गुप्त, डा अर्चना त्रिपाठी, श्रीकांत सत्यदर्शी, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, पवन कुमर मिश्र, प्रवीर पंकज, अमरेन्द्र कुमार, डा रमाकान्त पाण्डेय, श्रद्धा कुमारी, अरविन्द कुमार सिंह, शंकर शरण मधुकर, नेहाल सिंह ‘निर्मल’ तथा नरेन्द्र देव समेत अनेक गण्य-मान्य नागरिक उपस्थित थे। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन सम्मेलन के उपाध्यक्ष तथा अवकाश प्राप्त भा प्र से अधिकारी राजीव कुमार सिंह ‘परिमलेन्दु’ ने किया।

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