इन्दर सिंह नामधारी की कलम से-झारखंड,कल आज और कल

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15 नवम्बर 2017 को झारखंड ने अपने अस्तित्व में आने के 17 वर्ष पूरे कर लिए हैं। रघुवर सरकार ने बड़ी धूमधाम के साथ स्थापना दिवस मनाया है जिसमें महामहिम राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द भी शामिल हुए। मुझे वर्ष 2000 के 15 नवम्बर की वह आधी रात भी याद है जब श्री बाबू लाल मरांडी ने राजभवन में पहले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। मैंने इस लेख का शीर्षक कल आज और कल इसलिए रखा है ताकि स्थापना दिवस के शुभ अवसर पर झारखंड के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य पर बिहंगम दृष्टि डाली जा सके।

वर्ष 1947 में मेरी उम्र लगभग सात वर्ष रही होगी जब मेरा परिवार आज के पाकिस्तान से विस्थापित होकर पलामूं की धरती पर आ बसा था। उस समय का जिला पलामूं आज गढ़वा, लातेहार एवं डालटनगंज के तीन जिलों में बंट चुका है। मेरा अनुमान है कि आज के अकेले डालटनगंज की जनसंख्या उस समय के पूरे पलामूं की जनसंख्या से कहीं ज्यादा होगी। उन दिनों शहर से चन्द किलोमीटर बाहर निकलते ही कच्ची सड़कों के दोनों तरफ घने जंगल देखने को मिलते थे। कोयल नदी में आने वाले बाढ़ की विकरालता अभी भी मानस पटल पर अंकित है। खास डालटनगंज शहर में एक दर्जन से अधिक तालाब पानी से लबालब भरे रहते थे। वर्षा त्रतु में तो कभी-कभी महीने भर सूर्यं भगवान के दर्शन नहीं होते थे। वनों एवं खनिज पदार्थो से परिपूर्ण यह स्थान अपने सुनहरे भविष्य का इंतजार कर रहा था।

पढ़-लिखकर जब मैं बीआईंटी सिन्दरी में लेक्चरर बन गया तो पता नहीं क्यों मेरे दिल में भावना जगी कि मुझे नौकरी नहीं लोक सेवक बनकर यहां की जनता की सेवा करनी है। इसी ऊहापोह में एक दिन मैं सिन्दरी की नौकरी छोड़कर बिना किसी भविष्य की चिन्ता किए डालटनगंज अपने घर लौट आया।

जनसंघ की राजनीति में सक्रिय होने के बाद मेरी मित्रता जब बोकारो निवासी समरेश सिंह से हुईं तो हम दोनों इस बिन्दु पर एक मत हो गए कि बिहार के दक्षिण हिस्से (छोटानागपुर) को काटकर वनांचल नाम से एक अलग राज्य बनाया जाना चाहिए। हमलोगों की मान्यता थी कि यह नया राज्य भारत का सर्वाधिक विकसित राज्य बन सकता है। इस लक्ष्य के लिए हमलोगों का अभियान तो शुरू हो गया लेकिन उस समय स्वर्गीय कैलाशपति मिश्रा, अश्विनी कुमार एवं ताराकान्त झा जैसे स्थापित नेता बिहार के बंटवारे से सहमत नहीं थे। वे किसी भी सूरत में बिहार का विभाजन नहीं चाहते थे। इसके ठीक विपरीत झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन छोटानागपुर के साथ पश्चिम बंगाल एवं मध्यप्रदेश के कुछ जिलों को मिलाकर एक वृहद् झारखंड बनाने की जिद पर अड़े थे।

वर्ष 1988 में भाजपा का निर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद मैंने जेएमएम के दो वरिष्ठ नेताओं सूरज मंडल एवं शैलेंद्र महतो को भरसक समझाने की कोशिश की कि वे तीन राज्यों को मिलाकर वृहद् झारखंड बनाने का राग अलापना बन्द कर दें क्योंकि ‘न तो नौ मन तेल होगा और न राधा ही नाचेगी।’ वे लोग कत्तईं मानने को तैयार नहीं हुए। संयोग से वर्ष 1988 में ही आगरा में हुए भाजपा के अधिवेशन में मुझे पार्टी की केद्रीय कार्यं समिति के सामने वनांचल के मुद्दे को उठाने का मौका मिल गया।

मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुईं जब भाजपा की केद्रीय कार्यं समिति के सामने मेरे द्वारा वनांचल अलग राज्य बनाए जाने के तर्क को केद्रीय नेताओं ने स्वीकार कर लिया और बैठक में ही यह निर्णय हो गया कि यदि केंद्र में भाजपा की सरकार बनी तो दक्षिण बिहार को बिहार से काटकर वनांचल के नाम से एक अलग राज्य बना दिया जाएगा। उस समय किसी को कयास नहीं था कि एक दशक के बाद भाजपा सचमुच केंद्र की सत्ता में आ जाएगी। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री एवं श्री लाल कृष्ण आडवाणी के गृहमंत्री बन जाने के बाद वनांचल समर्थकों का एक प्रतिनिधिमंडल भाजपा के शीर्ष नेताओं से मिला और आडवाणी जी को उनका वादा याद कराया।

तत्पश्चात केंद्र सरकार ने निर्णय कर लिया कि यूपी से काटकर उत्तराखंड, मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ एवं बिहार से काटकर वनांचल को अलग राज्य बना दिया जाएगा। हुआ भी यही तथा 15 नवम्बर 2000 को नवसृजित राज्य झारखंड अस्तित्व में आ गया। उस समय मेरी जुबान पर अकसर यह जुमला रहता था कि झारखंड एक ऐसी बदकिस्मत नारी है जिसकी कोख में तो अमीरी लेकिन गोद में गरीबी है। खनिज, वन एवं जल के स्रोतों से परिपूर्ण यह भूखंड देश का सर्वाधिक विकसित राज्य बन सकता है। इस आलोक में झारखंड का बीता हुआ कल संभावनाओं से भरा हुआ था और यह उम्मीद भी थी कि चन्द वर्षो में ही झारखंड देश का सर्वाधिक विकसित प्रांत बन जाएगा।

वर्ष 2000 में शुरुआत भी अच्छे ढंग से हुईं लेकिन लगता है झारखंड को किसी की बुरी नजर लग गईं और यह राज्य डोमिसाइल एवं आरक्षण जैसे अनावश्यक मुद्दों में उलझ गया। विकास बाधित होने लगा और भ्रष्टाचार पर भी नकेल नहीं कसी जा सकी। समय बीतता गया और बाबुलाल मरांडी के बाद झारखंड में कईं अन्य आदिवासी नेताओं को भी मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला लेकिन इस राज्य का पूर्ण विकास इसलिए बाधित रहा क्योंकि केंद्र में कोईं हमदर्द सरकार नहीं बन सकी। श्री नरेंद्र मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा झारखंड में लगभग अपने बलबूते पर सत्ता में आ गईं और रघुवर दास को पहला गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला।

तीन वर्ष से ऊपर की अवधि बीत चुकी है और मैं इस हकीकत से इंकार नहीं करता कि राज्य में सड़कों एवं अन्य कईं क्षेत्रों में विकास के काम हो रहा है लेकिन झारखंड की मौलिक समस्याओं का निराकरण नहीं हो पा रहा है। आज भी यहां के लाखों युवक/युवतियों को काम की खोज में देश के अन्य राज्यों में धक्के खाने पड़ रहे हैं। केवल डालटनगंज विधानसभा क्षेत्र से अन्य प्रांतों में काम की खोज में गए एक सौ से अधिक युवकों के शवों पर प्रतिवर्ष पुष्पांजलि करने का मुझे दुखद दायित्व निभाना पड़ता है क्योंकि काम करते समय दुर्घटनाओं में उनकी मौत हो जाती है।

मन में कसक उठती है कि इस राज्य में सब वुछ मौजूद रहने के बावजूद यहां के लोगों को दर-दर की ठोकरें खाने को क्यों विवश होना पड़ता है? पिछले 17 वर्षो में यदि शुद्ध मन से प्रयास किए गए होते तो वन एवं खनिज पदार्थो पर आधारित दर्जनों कारखाने लगाए जा सकते थे जिनसे पलामूं वासियों की बेरोजगारी को आसानी से दूर किया जा सकता था। इतना ही नहीं झारखंड के निवासियों को उम्मीद थी कि उन्हें सरकारी अस्पतालों में सहज-सुलभ ईंलाज, पुलिस थानों में न्याय, प्रखंड मुख्यालयों में बिना रिश्वत के काम एवं स्कूलों में अच्छी शिक्षा उपलब्ध हो सकेगी।

मुझे यह कहने में कोईं हिचकिचाहट नहीं है कि उपरोक्त सभी मामलों में यहां की गरीब जनता को निराशा ही हाथ लगी है। सरकारी प्रचार के अनुपात में विकास का न हो पाना झारखंड की सबसे बड़ी विडंबना है। लगता है स्थायी सत्ता की ललक में वर्तमान सरकार असली मुद्दों से भटक रही है। अपने आने वाले कल के झारखंड को सुरक्षित करने के लिए वर्तमान सरकार को प्रचार के स्थान पर प्यार का सहारा लेना पड़ेगा तथा नफरत एवं बिलगाव की मानसिकता को त्यागना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो इस राज्य का भविष्य वैसा ही होगा जो आकाश में नक्षत्रों की गणना करने वाले एक ज्योतिषी का हुआ था क्योंकि वह धरती की हकीकत को दरकिनार कर आकाश की ओर देखता हुआ कुएं में जा गिरा था। झारखंड के 18वें स्थापना दिवस के शुभ अवसर पर मेरी यही शुभकामना है। (श्री इन्दर सिंह नामधारी के फेसबुक पोस्ट से साभार)

 

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