पढ़ेगी बिटिया तो बढ़ेगी बिटिया

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डॉ नीतू कुमारी नवगीत.

पटना.जीवन की पथरीली राहों पर आगे बढ़ने के लिए ज्ञान की लाठी की जरूरत होती है। सही शिक्षा इस ज्ञान की लाठी को प्राप्त करने का सबसे सशक्त उपाय है। वैदिक काल में ज्ञान की यह लाठी महिलाओं को मिली हुई थी। महिलाओं ने कई वैदिक ऋचाओं की भी रचना की है। लेकिन मध्य काल में आए सामाजिक बदलावों में महिलाओं के हाथों से यह लाठी करीब-करीब छीन ली गई । उनकी खूब उपेक्षा की गई। बाल विवाह, सती प्रथा, जौहर प्रथा, घुंघट और इसी तरह की अनेक बेड़ियों से महिलाओं को जकड़ दिया गया। शास्त्रों की गलत दुहाई देकर विधवा-विवाह पर भी रोक लगा दी गई और महिलाओं को पति की सेवा में समर्पित कठपुतली और बच्चा पैदा करने वाली मशीन में तब्दील कर दिया गया।

मध्यकाल में महिलाओं में साक्षरता नाममात्र की ही बची रह गई। कुछ अपवाद संभ्रांत परिवारों और राजघरानों में रहे। मुगलकालीन राजकुमारियां जहांआरा और जेबुन्निसा को महलों में ही अच्छी शिक्षा प्राप्त हुई और उन्होंने कई कविताएं भी लिखी । इसी तरह राजस्थान, मध्य भारत और पूर्वी भारत के चंद राजघरानों की लड़कियों को शिक्षा नसीब हुई । परंतु मध्य और निम्न वर्ग की लड़कियों के लिए शिक्षा प्राप्त करना  दिवास्वप्न बन गया । उन्नीसवीं शताब्दी में बदलाव का दौर चालू हुआ । थोड़ी सी कोशिश ईसाई मिशनरियों द्वारा की गई और थोड़ा सा प्रयास भारत के समाज सुधारकों  द्वारा। राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फूले और सावित्रीबाई फुले ने स्त्रियों की शिक्षा पर बल दिया । इनके प्रयासों से शैक्षिक परिदृश्य में बदलाव आया और कादंबिनी गांगुली, चंद्रमुखी बोस तथा आनंदी गोपाल जैसी महिलाओं ने शिक्षा की बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल की ।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी ने स्त्री शिक्षा पर जोर दिया । कस्तूरबा गांधी ने भी इस अभियान में उनका साथ दिया । इसके अलावा डॉ एनी बेसेंट, अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी, सरोजिनी नायडू,  भीखाजी कामा, राजकुमारी अमृत कौर जैसी महिलाओं ने आजादी की लड़ाई के साथ-साथ शिक्षा की ज्योति के प्रसार के लिए भी अभियान चलाया । देश 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ । लेकिन उस समय भी शिक्षा की स्थिति अच्छी नहीं थी । महिला शिक्षा की स्थिति तो और भी बदतर थी। 1951 के जनगणना सर्वेक्षण के अनुसार पूरे देश के 18.33 प्रतिशत लोग ही साक्षर थे जिसमें 21.16 प्रतिशत पुरुष और 8.86 प्रतिशत महिलाएं साक्षर थी। पुरुष और महिला साक्षरता की दर में करीब 12.30 प्रतिशत का अंतर था । आश्चर्यजनक रूप से स्वतंत्र भारत में काल के प्रवाह के साथ- साथ पुरुष और महिला साक्षरता दर के बीच का अंतर बढ़ता चला  गया । 1961 में यह अंतर 25.05 प्रतिशत, 1971 में 23.99  प्रतिशत, 1981 में 26.62 प्रतिशत, 1991 में 24.84 प्रतिशत और 2001 में 21.59 प्रतिशत रहा । 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल साक्षरता 72.98 प्रतिशत है ।  इसमें पुरुष साक्षरता की दर 80.88 प्रतिशत और महिला साक्षरता 64.63 प्रतिशत है । इस तरह पुरुष और महिला साक्षरता की दर में अभी भी 16.25 प्रतिशत का अंतर है । बिहार जैसे कुछ राज्यों में जहां साक्षरता का प्रतिशत सबसे कम है, वहां स्त्री और पुरुष साक्षरता के बीच का अंतर भी कुछ ज्यादा ही है । 2011 में बिहार में 71 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले मात्र 51 प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर की परिभाषा के दायरे में आ पाईं।इस तरह पुरुष और महिला साक्षरता के बीच 20% का अंतर बिहार में देखने को मिला।

स्त्री शिक्षा के प्रति जैसी मानसिकता मध्यकाल में थी, निश्चित ही उसमें बदलाव आया है। लेकिन तथ्यों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि शिक्षा के मामले में महिलाओं और पुरुषों के बीच भेदभाव कायम है । परिवार के बड़े-बुजुर्गों के साथ-साथ अपेक्षाकृत युवा अभिभावक भी शिक्षा के मामले में लड़कों को ज्यादा महत्व देते हैं। मानसिकता है कि लड़की का क्या ? वह तो पराया धन है। आज घर में है, कल पराए घर की लक्ष्मी बन जाएगी। उसके शिक्षा पर किया जाने वाला खर्च बेकार जाएगा। बेहतर है कि उस धन का संचय कर उसका उपयोग उसकी शादी में दहेज के रूप में कर दिया जाए। इस प्रकार की मानसिकता लड़कियों की शिक्षा के मार्ग में बहुत बड़ी रुकावट है। वस्तुतः बदलते वक्त में महिलाएं पुरुषों की अनुसंगिनी होने के बजाए सहधर्मिणी बनने की राह पर आगे बढ़ चली है। ऐसे में पुरानी मानसिकता को बदलना भी जरुरी हो गया है।कहते हैं- नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति मातृ समोगुरु:। अर्थात इस दुनिया में विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है और माता के समान गुरु नहीं है । किसी भी व्यक्ति के जीवन में ज्ञान का प्रारंभिक बीज माता ही बोती है। इसीलिए कहा गया है कि एक लड़के को पढ़ाने का मतलब एक व्यक्ति को पढ़ाना है, लेकिन एक लड़की को पढ़ाने का मतलब पूरे परिवार और उससे जुड़े समाज को पढ़ाना है।

लड़कियों को जब जब मौका मिला है, उन्होंने साबित किया है कि वे आसमान के विस्तार की थाह ले सकती हैं। वे हिमालय  की बर्फीली  चोटियों की ऊंचाई भी माप सकती हैं और सीमित संसाधनों के बावजूद चंद्रमा और मंगल ग्रह के रहस्यों पर पड़े आवरण को भी हटा सकती हैं । ऐसे में जरूरी है कि लड़कियों को पढ़ने का पर्याप्त अवसर और जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। आखिरकार जब पढ़ेगी बिटिया, तभी आगे बढ़ेगी बिटिया !

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