निशाने पर पत्रकार,खतरे में पत्रकारिता

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प्रमोद दत्त.

पहले झारखंड में फिर बिहार में पत्रकार की हुई हत्या पर पत्रकारिता जगत आक्रोश में है.विपक्ष भी राजनीतिक रोटी सेंकने में लगा है.यही विपक्ष जब सत्ता में होता हैं तो उन्हें पत्रकारों या स्वतंत्र पत्रकारिता का दर्द महसूस नहीं होता.राजनीतिबाजों का यह दोहरा चरित्र पत्रकारों का चरित्र बिगाड़ने में लगा है.वेश्या के समान पत्रकार डिमांड के अनुसार परफॉरमेंस करते रहें तो राजनीतिबाज खुश-अन्यथा उनकी नाराजगी की गाज कब किस पर गिरेगी कहा नहीं जा सकता है.

लंबे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहे जदयू सांसद अली अनवर से जब न्यूज चैनल ने बिहार में पत्रकार हत्याकांड पर प्रतिक्रिया ली तो इस घटना पर राजनीति करते हुए कोटा में बिहारी छात्र की निर्मम हत्या की चर्चा करने लगे.बता दें कि वे संघर्षशील पत्रकार रहे हैं.झारखंड में पत्रकार की हत्या पर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद खूब गरजे लेकिन सिवान में हुए पत्रकार की हत्या पर चुप्पी साध ली.ठीक इसी प्रकार बिहार के पत्रकार हत्याकांड पर भाजपा के बिहारी नेता हाय-तौबा मचाने लगे लेकिन झारखंड में पत्रकार हत्या पर मौन साध लिया.जदयू के वरिष्ठ नेता श्याम रजक ने संतोषजनक बयान देते हुए कहा कि इस घटना को चुनौती के रूप में लेना चाहिए.राजद सांसद तस्लीमुद्दीन व पूर्व सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपने ही दल की सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश जरूर की.लेकिन अंदरखाने की माने तो इन नेताओं के ऐसे बयान के भी सियासी मतलब हैं.

पत्रकारिता के संबंध में राजनीतिबाजों का दोहरा चरित्र कोई आज की देन नहीं है.कांग्रेस के लंबे शासनकाल के दौरान ही पत्रकारों को निशाने पर लिया जाने लगा था.तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र का पत्रकारों को तोहफा दिए जाने की कहानी चर्चित रही है.पटाने या धमकाने का खेल वर्षों से हो रहा है.लेकिन राजनीति में जब से “ सेवा की ब्रांडिंग“ होने लगी तभी से पत्रकारिता भी “धर्म से व्यवसाय“ हो गया.पत्रकारिता के व्यवसायीकरण का प्रभाव स्वतंत्र पत्रकारिता पर पड़ना स्वाभाविक है.

दरअसल स्वतंत्र पत्रकारिता को लेकर जितना कठिन संघर्ष इनदिनों चल रहा है इतना आजाद भारत में कभी नहीं रहा.अखबार या मीडिया हाऊस के मालिक इसे भरपूर लाभ देनेवाले उद्योग के समान चलाने की कोशिश में हैं.बड़े-बड़े नेताओं से दोस्ताना संबंध बना रहे हैं.जाहिर है ऐसे नेता उस संस्था से जुड़े पत्रकार को अपना ही कर्मचारी समझ बैठते हैं.इसलिए वर्तमान समय में अधिकांश पत्रकार, पत्रकारिता के बजाए नौकरी कर रहे हैं जो उनके परिवार के जीवन-यापन का साधन है.इसी भीड़ में कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं जो पत्रकारिता करते रहने की जिद पर अड़े हैं.वे भाग्यशाली हैं जिनकी अभी तक हत्या नहीं हुई है.

स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए शहीद होनेवाले पत्रकार को या उनके परिवार को वैसी आंसुओं की सहानुभूति नहीं चाहिए जो किसी सफल कलाकार की नकली आंसुओं के समान है.सेवा के बजाए ब्रांडिंग में लगे नेता हों या पत्रकारिता को धर्म से व्यवसाय बनाने वाले चाटुकार- उन्हें याद दिलाना जरूरी हो गया है कि इसी बिहार की धरती से लोकतंत्र को बचाने के लिए 1974 का छात्र आंदोलन तो प्रेस की आजादी के लिए पत्रकारों का 1982 में देशव्यापी आंदोलन हो चुका है.इतिहास दोहराया और लोकतंत्र व लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बचाने के लिए अगर आमलोग सड़क पर उतर गए तो इस नशाबंदी के माहौल में सत्ता का नशा भी टूट जाएगा.

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