संविधान दिवस के अवसर पर गोष्ठी का आयोजन

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संवाददाता.पटना. संविधान दिवस के अवसर पर मानवाधिकार संरक्षण प्रतिष्ठान के तत्वावधान में बिहार आर्थिक अध्ययन संस्थान के सभागार में सोमवार को आयोजित गोष्ठी को सम्बोधित करते हुए प्रतिष्ठान के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा॰ जगन्नाथ मिश्र ने कहा है कि भारतीय संविधान के मूल सिद्धांत उसकी उद्देशिका में, मूल अधिकारों संबंधी तीसरे भाग में तथा राज्य की नीति के निदेशक तत्वों संबंधी चौथे भाग में विशेष रूप से मूर्त हुए हैं। मूल अधिकारों का वर्णन अनुच्छेद 12 से 35 में हुआ है और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों का अनुच्छेद 36 से 51 में। संविधान के उद्देशिका में सारे संविधान का सार है, दर्शन है। संविधान के सभी उपबंध उद्देशिका में निहित भावनाओं से स्फूर्ति ग्रहण करते हैं।

उन्होंने कहा कि उद्देशिका पर आधुनिक युग की तीन महान क्रान्तियों का प्रभाव पड़ा है-फ्रांसीसी, अमरीकी और रूसी। फ्रांसीसी क्रान्ति में स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर जोर दिया गया था, अमरीकी क्रान्ति में राजनीतिक स्वतंत्रता तथा व्यक्ति-स्वातंन्न्य पर और रूसी क्रान्ति में आर्थिक समानता पर। भारतीय क्रान्ति के सूत्रधारों ने आरंभ से ही इन तीनों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया।

डा॰ मिश्र ने कहा कि सामाजिक न्याय का अभिप्राय है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाय, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्तियों के समुचित विकास के समान अवसर उपलब्ध हों, किसी भी व्यक्ति का किसी रूप में शोषण न हो और उसके व्यक्तित्व को एक पवित्र सामाजिक विभूति माना जाय, किसी परोक्ष लक्ष्य की सिद्धि का साधन-मात्र नहीं। सामाजिक न्याय सुलभ करने के लिए यह आवश्यक है कि देश की राजसत्ता विधायी तथा कार्यकारी कृत्यों के द्वारा समतायुक्त समाज की स्थापना का प्रयत्न करे। सामाजिक न्याय के इस मूलभूत मानवीय सिद्धांत को संविधान के अनेक रूपों में मान्यता मिली है।

डॉ मिश्र के अनुसार संविधान के तीसरे और चौथे भागों में सामाजिक न्याय की सिद्धि के विविध उपायों का उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत भूमि पर कानून के समक्ष सभी, अर्थात् केवल नागरिक ही नहीं, समान हैं, सबको समान संरक्षण प्राप्त हैं। अनुच्छेद 15 धर्म, मूल-वंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान आदि के आधार पर विभेद का निषेध करता है। अनुच्छेद 16 के द्वारा राज्याधीन पदों पर नियुक्तियों के संबंध में सब नागरिकों को अवसर की समता दी गयी है। अनुच्छेद 17 के द्वारा छुआछूत का तथा अनुच्छेद 23 के द्वारा पण्य और बलात श्रम अथवा बेगार का अंत कर दिया गया है। अनुच्छेद 24 के द्वारा कारखानों में बच्चों से काम कराने का निषेध किया गया है। अनुच्छेद 29 और 30 के अंतर्गत अल्पसंख्यकों के शिक्षा और संस्कृति संबंधी हितों तथा अधिकारों के संरक्षण की व्यवस्था की गयी है। अनुच्छेद 41 में कहा गया है कि राज्य अपनी आर्थिक सामथ्र्य और विकास की सीमाओं के भीतर काम पाने के, शिक्षा पाने के तथा बीमारी, बुढ़ापा, बेकारी आदि अभाव की दशाओं में सार्वजनिक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का कार्यसाधक प्रयास करेगा। अनुच्छेद 42 में संविधान ने राज्य को निर्देश दिया है कि वह काम की यथोचित और मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए तथा प्रसूति-सहायत के लिए उपबंध करे।

उन्होंने कहा-आर्थिक न्याय के अभाव में सामाजिक न्याय कल्पना मात्र है। आर्थिक न्याय का अभिप्राय है कि धन-संपदा के आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विच्छेद की कोई दीवार खड़ी नहीं की जा सकती। एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य का अथवा एक वर्ग को दूसरे वर्ग का शोषण करने का अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 39 में राज्य से कहा गया है कि वह अपनी नीति का संचालन ऐसा करे जिससे समान रूप से सभी नर-नारियों को आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो, आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि धन का और उत्पादन तथा वितरण के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकर केन्द्रण न हो, पुरूषों और स्त्रियों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले।

इस गोष्ठी में भाग लेने वालों में प्रमुख थे -बच्चा ठाकुर, भा॰प्र॰से॰ (अ॰प्रा॰), डा॰ (प्रो॰) वचन पाण्डेय, डा॰ (प्रो॰) ज्योतीन्द्र चैधरी, डा॰ रामानन्द पाण्डेय, डा॰ रमेश प्रसाद वर्मा, अनवार खाँ, कामेश्वर पासवान, कृष्ण कुमार ठाकुर रामप्रवेश यादव, मनोज शेखर, श्याम बिहारी मिश्र, रामउदार झा  आदि।

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