चंपारण सत्याग्रह से भारत छोड़ो आंदोलन तक गांधी की सहयात्री बा

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डॉ नीतू नवगीत.

कस्तूरबा गांधी का नाम आते ही दिल में श्रद्धा का भाव आ जाता है। वस्तुतः कस्तूरबा वह बुनियाद थीं जिस पर गांधी रूपी विशाल इमारत का निर्माण हुआ था। यह बुनियाद स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न चरणों के आंदोलनों के दौरान कभी-कभी मुख्य पटल पर दिखती है लेकिन अधिकतर मौकों पर अदृश्यता में ही गांधी रूपी इमारत को ताकत प्रदान करते रहती है। मोहनदास करमचंद गांधी के महात्मा और उसके बाद राष्ट्रपिता बनने की प्रक्रिया में यदि किसी ने सबसे ज्यादा सहा तो वह कोई और नहीं बल्कि कस्तूरबा गांधी ही थी। प्यार से सारा राष्ट्र उन्हें ‘बा’ के नाम से पुकारता है। बा यानी मां। सिर्फ कहने के लिए नहीं बल्कि सच्चे अर्थों में मां, प्यारी मां। त्यागी और तेजस्वी मां।

जिस वर्ष महात्मा गांधी इस धरती पर अवतरित हुए, बा का जन्म भी उसी वर्ष हुआ। गांधीजी से थोड़ा पहले। 1869 ईस्वी में 11 अप्रैल को। गुजरात राज्य के काठियावाड़ रजवाड़े के उसी पोरबंदर शहर में। कैलेंडर पर भी तारीखों की गणना करें तो बा बापू से 5 माह 20 दिन बड़ी थी। पिता गोकुलदास मकन जी कपाड़िया और माता व्रज कुंवर कपाड़िया की तीसरी संतान कस्तूरबा का गांधी जी के जीवन में उसी समय आना तय हो गया था, जब वह महज 7 साल की थी। मोहनदास करमचंद गांधी की उम्र उस समय साढ़े छ: साल थी। गांधीजी अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में लिखते हैं- मेरी एक-एक करके तीन बार सगाई हुई थी। यह तीन सगाईयां कब हुई, इसका मुझे पता नहीं। मुझे बताया गया था कि दो कन्याएं एक के बाद एक मर गईं। इसलिए मैं जानता हूं कि मेरी तीन सगाइयाँ हुई थी। कुछ ऐसा याद पड़ता है कि तीसरी सगाई कोई सात साल की उम्र में हुई होगी।

मोहनदास और कस्तूरबा का विवाह 1883 ई में हुआ। उस समय गांधी परिवार में एक साथ 3 लड़कों के लिए शहनाइयां बजी। गांधी जी लिखते हैं- ‘घर के बड़ों ने एक साथ तीन विवाह करने का निश्चय किया । मझले भाई का, मेरे काका जी के छोटे लड़के का जिसकी उम्र मुझसे एकाध साल शायद अधिक रही होगी और मेरा। इसमें हमारे कल्याण की बात नहीं थी। हमारी इच्छा की तो थी ही नहीं।बात सिर्फ बड़ों की सुविधा और खर्च की थी।’ उस समय भी शादी विवाह पर काफी खर्च होता था। वर-कन्या के माता-पिता विवाह के पीछे बर्बाद होते थे। काफी धन और समय लुटाते थे। महीनों की तैयारी की जाती थी । दो भाइयों और गांधीजी की शादी धूमधाम से संपन्न हुई । शादी के बाद की पहली मुलाकात का वर्णन गांधी जी ने स्वयं बड़े संकोच के साथ किया है- ‘मंडप में बैठे, फेरे फिरे, कसार खाया-खिलाया और तभी से वर-वधू साथ में रहने लगे। वह पहली रात! दो निर्दोष बालक अनजाने संसार-सागर में कूद पड़े। भाभी ने सिखलाया कि मुझे पहली रात में कैसा बर्ताव करना चाहिए. . . हम दोनों एक दूसरे से डरते थे, ऐसा भास मुझे है। एक दूसरे से शर्माते तो थे ही।

कस्तूरबा गांधी पढ़ी-लिखी नहीं थी। लेकिन स्वभाव से सीधी, स्वतंत्र, मेहनती और कम बोलने वाली थी। उनके अंदर अपने अज्ञान के प्रति असंतोष नहीं था। वह स्वतंत्र तरीके से जीवन जीने में विश्वास रखती थी । गांधीजी ने स्वीकार किया है कि शादी के बाद उनके जीवन में मिठास था । लेकिन जीवन में कुछ वक्रता भी थी। वह कहते हैं – ‘मैं अपनी पत्नी को आदर्श बनाना चाहता था । मेरी यह भावना थी कि वह स्वच्छ बने, स्वच्छ रहे । मैं सीखूं सो सीखें । मैं पढ़ूं सो पढ़े, और हम दोनों एक दूसरे में ओतप्रोत रहें ।’ गांधीजी ने एक पत्नी-व्रत पालन का संकल्प लिया था और चाहते थे कि कस्तूरबा एक पति-व्रत का पालन करें । हालांकि पत्नी की पवित्रता में शंका करने का कोई कारण नहीं था फिर भी पुरुषवादी मन:स्थिति के कारण वह अपनी पत्नी पर निगरानी रखने लगे। वह कहां जाती है, कब जाती है, क्यों जाती है ? जैसे सवाल जवाब करने लगे और यही दोनों के बीच दु:खद झगड़े की जड़ बन गई। बा को इस तरह के सवाल जवाब पसंद नहीं थे। गांधी जी ने ज्यों-ज्यों बा पर दबाव डाला, त्यों त्यों वह अधिक स्वतंत्रता से काम लेने लगी।

उस समय का रिवाज था कि शादी के बाद भी लड़कियां बार-बार अपने मां पिता जी के घर जाती थी। यही कारण है कि 13 से 19 साल की उम्र के छ: साल के वैवाहिक बंधन के दौरान दोनों बमुश्किल तीन साल ही साथ-साथ रहे।उसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह विलायत चले गए और बा पोरबंदर में ही रह गई। अपनी शादी के प्रारंभिक वर्षों की अपनी सोच पर कटाक्ष करते हुए गांधीजी ने बाद में लिखा कि पत्नी पति की दासी नहीं, उसकी सहचारिणी है, सहधर्मिणी है। दोनों एक दूसरे के  सुख-दुख के समान साझेदार हैं, और भला-बुरा कहने की जितनी स्वतंत्रता पति को है, उतनी ही पत्नी को है। संदेह के उस काल को जब मैं याद करता हूं तो मुझे अपनी मूर्खता और विषयांध निर्दयता पर क्रोध आता है । गांधीजी की इसी परिपक्वता से दोनों के रिश्ते में प्रगाढ़ता आई और बा गांधी जी की पूरक होती चली गईं।

गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद और भारतीयों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ अभियान चलाया था। उस समय कस्तूरबा गांधी उनके साथ थी। अंग्रेजों ने एक काला कानून बनाया था। इसके तहत ईसाई विवाह प्रणाली के अलावा बाकी और किसी प्रथा के अनुसार शादी करने वालों का विवाह रद्द मान लिया जाता था। बा ने इस प्रकार के धर्मांध काले कानून का विरोध किया और तीन अन्य महिलाओं के साथ गिरफ्तारी दी। गांधीजी भी उस कानून के खिलाफ अभियान चला रहे थे, लेकिन उसकी जानकारी उन्होंने कस्तूरबा गांधी को नहीं दी थी। बा इस बात से नाराज भी हुई थी। गांधीजी का मत था कि बा बिना किसी दबाव के अपनी मर्जी से इस आंदोलन में शरीक हों। परिपक्वता आने के बाद गांधी जी किसी भी बात के लिए बा पर दबाव नहीं बनाना चाहते थे। बा भी गांधीजी के इस व्यवहार से काफी प्रभावित हुईं और दोनों का दांपत्य जीवन खुशहाल होता चला गया।

चंपारण को गांधीजी के प्रमुख सिद्धांत सत्य और अहिंसा की प्रथम प्रयोगशाला माना जाता है । यहीं पर गांधी जी ने बिना किसी शस्त्र का इस्तेमाल किए सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह की ताकत को पहचाना । गांधी जी का चंपारण में आगमन 10 अप्रैल, 2017 को हुआ था । उस समय वह राजकुमार शुक्ल के साथ आए थे और बा उनके साथ नहीं थी । दो महीने बाद ही मोतिहारी में बा गांधी जी के साथ जुड़ गईं । सबसे पहले उन्होंने रसोई की जिम्मेदारी ली । गांधी जी से जुड़े सभी कार्यकर्ताओं का खाना एक साथ बनने लगा और सभी सप्रेम एक साथ मिल बैठकर भोजन करने लगे ।इससे स्थानीय समाज में व्याप्त छुआछूत और ऊंच-नीच के भाव समाप्त हुए । बाद में बा  गांव-गांव जाकर महिलाओं से मिलने लगीं । उस समय महिला कार्यकर्ताओं की संख्या काफी कम थी । बा की सक्रियता से अनेक महिलाएं निलहे गोरों के खिलाफ चल रहे आंदोलन से जुड़ गईं और पुरुष कार्यकर्ताओं का हाथ बँटाने लगीं ।

गांधी जी के नेतृत्व में  किए गए प्रयासों से अंततः नील की फैक्ट्रियों के गोरे मालिक चंपारण में तीनकठिया प्रथा की समाप्ति के राजी हुए । इसके लिए कानून भी बना दिया गया। । लेकिन गांधी जी ने महसूस किया कि सिर्फ गोरे ही समस्या नहीं है। चंपारण के गांवों में व्याप्त अशिक्षा, गंदगी और छुआछूत की भावना भी लोगों के पिछड़ेपन का कारण है। गांधी जी ने समाज सुधार और शिक्षा की जिम्मेदारी अपने कंधो पर ली। भितिहरवा में बच्चों की पढ़ाई और बीमारों के इलाज के लिए आश्रम खोला गया। निरक्षर होते हुए भी बा ने मुस्तैदी से इस आश्रम का काम अपने हाथों में ले लिया। सामूहिक रुप से यह फैसला लिया गया कि स्त्रियों के मार्फत ही स्त्री समाज में प्रवेश करना है। बच्चों को पढ़ाने के लिए अवंतिका बाई गोखले और आनंदीबाई चंपारण में आईं।महादेव देसाई की पत्नी दुर्गा बहन और नरहरि पारिख की पत्नी मणि बहन भी आईं। इससे बा के हाथ मजबूत हुए। सब बहनें मिलकर बच्चों को पढ़ाने लगीं । जिन्हें थोड़ा बहुत हिंदी आता था वह बच्चों को भाषा का ज्ञान देती और बाकी बहनें लोगों को रहन-सहन का तरीका और स्वच्छता के नियम सिखातीं। बा को स्वच्छता का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी मिली थी। सब के सम्मिलित प्रयत्न से  भितिहरवा की पाठशाला आदर्श पाठशाला बन गयी। सबने मिलकर गंदगी के खिलाफ भी अभियान चलाया। लोगों को प्रतिदिन स्नान करने और आसपास के क्षेत्रों की सफाई का महत्व बताया। हालांकि इसी क्रम में गांधी जी को एक बहुत कड़वे अनुभव से भी गुजारना पड़ा । भितिहरवा के पास के एक गांव में जब सब भ्रमण कर रहे थे तो गांव की महिलाओं के कपड़े काफ़ी गंदे थे। गांधी जी ने उन महिलाओं को कपड़े बदलने के फायदे के बारे में समझाने के लिए बा से कहा। बा ने सबसे बात की । एक महिला बा को अपनी झोपड़ी में ले गई और कहा कि आप मेरे पूरे घर की जांच कर लीजिए । मेरे पास कोई और कपड़ा नहीं है । मेरे पास एक ही साड़ी है जिसे मैंने पहन रखा है । इसे मैं कैसे धो सकती हूं? महात्मा जी से कहिए कि वह कपड़े दिलवाएं। उस दशा में ही वह रोज नहाने और कपड़े बदलने का काम कर सकती हैं। इस घटना ने गांधी जी को अंदर से झकझोर कर रख दिया और उन्होंने सूट-बूट और कुर्ते को सदा के लिए त्यागने का फैसला कर लिया। अपने आप में एक ऐतिहासिक फैसला जिसके कारण विलायत में पढ़ा-लिखा नामी वकील एक फकीर बन गया। एक ऐसा फकीर जिसकी गतिविधियों से उस समय की सबसे ताकतवर ब्रितानी सरकार की कांपने लगी।

गुजरात के खेड़ा में किसानों के आंदोलन को दिशा देने के लिए गांधीजी चंपारण से गुजरात आए। बा उनके साथ आई। गांधी जी के दांडी मार्च में बा उनके साथ नहीं थी। लेकिन सविनय अवज्ञा आंदोलन की दूसरी गतिविधियों में वह सक्रिय रही। 1939 में राजकोट में महिलाओं के आंदोलन का नेतृत्व करते हुए वह जेल गई। उनका कहना था कि यदि उनके अपने घर में ही समस्या है तो संघर्ष उन्हें करना ही होगा। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर  हिस्सा लिया। गांधी जी ने ‘ अंग्रेजों,भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ का नारा दिया था।  गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया। बा ने आंदोलन का नेतृत्व करने की घोषणा की । ब्रिटिश हुकूमत भयभीत थी । बा को भी गिरफ्तार कर लिया। गांधी जी के साथ ही उन्हें पुणे के आगा खान महल में रखा गया। न्यूमोनिया की पुरानी बीमारी के चलते 22 फरवरी,1944 को उनका स्वर्गवास हो गया। उस समय बा का सिर गांधी जी के गोद में था। गांधी जी के लिए वह अपूरणीय क्षति थी। उन्होंने कहा- ‘मैं बा के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकता । ‘

गांधीजी की जीवन संगिनी और सहधर्मिणी के साथ साथ एक सच्चे राष्ट्रवादी के रूप में बा ने स्वतंत्र भारत का सपना देखा था । लेकिन दुर्भाग्य से उस सपने को हकीकत में बदलने के तीन साल पहले ही वह गुलामी की बेड़ियों को सदा-सदा के लिए काटते हुए अपनी महायात्रा पर चली गईं।

 

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