प्रमोद दत्त.
पटना। बिहार के चुनावी इतिहास में कई बाहुबलियों की चर्चा होती रही है। शुरुआत में कई लोग दूसरों के लिए बूथ कब्जा करते थे। लेकिन बाद में वही ताकतवर नेता विधानसभा और लोकसभा तक पहुंचे।
ज्यादातर बाहुबली पहली बार निर्दलीय ही जीते। इस बार के चुनाव में भी एक बाहुबली मैदान में है। फर्क सिर्फ इतना है कि उसके हाथ में न बंदूक है और न बम।
नया बाहुबली – प्रशांत किशोर
दरअसल, इस बार चर्चा का केंद्र हैं जनसुराज के सर्वेसर्वा प्रशांत किशोर (पीके)।
उन्होंने अब तक अपनी रणनीति और सोशल मीडिया की ताकत से दूसरों को जिताया था। लेकिन इस बार वही हथियार अपने लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
पुराने दौर के बाहुबली
बिहार में जब भी चुनावी चर्चा होती है, तब बाहुबली नेताओं का जिक्र जरूर आता है।
1970 से 1990 के बीच वीर महोबिया, वीर बहादुर सिंह, सरदार कृष्णा सिंह, प्रभुनाथ सिंह, सूरज भान सिंह, पप्पू यादव, काली पाण्डेय, राजन तिवारी, मुन्ना शुक्ला, शहाबुद्दीन, दिलीप सिंह, आनंद मोहन, अनंत सिंह, रीतलाल यादव, दुलारचंद यादव और रणवीर यादव जैसे नाम दबंगता के प्रतीक रहे हैं।
चुनाव प्रचार की बदलती शैली
जिस तरह अब बैलेट पेपर से चुनाव नहीं होते, उसी तरह प्रचार की शैली भी बदल गई है।
2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के प्रचार तंत्र को हाई-टेक बनाने की शुरुआत प्रशांत किशोर ने की थी।
इसके बाद 2014 लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने वही तरीका अपनाया। दरअसल, यही उनकी सफलता की कुंजी रही।
हालांकि कभी-कभी उन्हें असफलता भी मिली, लेकिन उनका ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ता गया।
जदयू से अलग होने के बाद
जदयू और नीतीश कुमार से नाता टूटने के बाद पीके अब खुद मैदान में उतरे हैं।
हालांकि, वे बार-बार दोहराते हैं कि यह लड़ाई उनके लिए नहीं बल्कि बिहार के भविष्य के लिए है।
सोशल मीडिया की ताकत
इस चुनाव में प्रशांत किशोर सोशल मीडिया पर पूरी तरह सक्रिय हैं।
वे लगातार यूट्यूबर और सोशल मीडिया एक्सपर्ट की टीम से मीटिंग कर रहे हैं।
साथ ही उन्हें जनसुराज से जोड़कर बेहतर भविष्य का सपना दिखा रहे हैं।
जिनके जितने अधिक फॉलोअर्स हैं, उन्हें उसी हिसाब से महत्व दिया जा रहा है।
एनडीए और महागठबंधन की चिंता
पीके की यही टीम बिहार में जनसुराज के पक्ष में माहौल बना रही है।
यही वजह है कि सोशल मीडिया के इस नए “बाहुबली” से एनडीए और महागठबंधन दोनों खौफजदा हैं।।