प्रमोद दत्त.
पटना। विधानसभा चुनाव से लेकर मंत्रिमंडल के गठन तक में रालोमो नेता उपेन्द्र कुशवाहा सांप-सीढ़ी के खेल में सांप के शिकार हो गए और फिसल गए।जिस उपेन्द्र कुशवाहा में मुख्यमंत्री बनने की क्षमता मानी जा रही थी उस उपेन्द्र कुशवाहा ने भी परिवार मोह में फंसकर अपनी छवि धूमिल कर ली।
उपेन्द्र कुशवाहा के राजनीतिक जीवन में अभी तक कोई दाग नहीं था। बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और केंद्र में मंत्री बनने के बाद राजनीतिक कद भी बढ़ा था। बिहार की पिछड़ावाद की मजबूत होती राजनीति में यह माना जा रहा था कि यादव और कुर्मी के बाद मुख्यमंत्री पद पर अब कुशवाहा की दावेदारी मजबूत है।
बताते चलें कि बिहार में जब समाजवादी आन्दोलन तेज था तभी यादव, कुर्मी और कुशवाहा का त्रिवेणी संघ बनाया गया था।यह राजनीति में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के उद्देश्य से ही बना था। इसलिए, लालू -राबड़ी शासनकाल और फिर नीतीश शासनकाल के बाद मुख्यमंत्री के लिए किसी कुशवाहा की दावेदारी मजबूत थी।
यादव के सर्वमान्य नेता रामलखन सिंह यादव के बाद लालू प्रसाद यादव के सर्वमान्य नेता बने।कुशवाहा के सर्वमान्य नेता जगदेव प्रसाद के बाद उनके बेटे नागमणि ने विरासत संभालने की कोशिश की लेकिन वे भी परिवारवाद की राजनीति में उलझ गए।
1995 चुनाव में जब समता पार्टी के मात्र 6 विधायक जीते थे तब नीतीश कुमार ने सार्वजनिक मंच से अपनी गलती मानते हुए शकुनी चौधरी को समता पार्टी का नेता माना था।आज उनका पुत्र सम्राट चौधरी, नीतीश मंत्रिमंडल में उपमुख्यमंत्री के रूप में दूसरे नंबर पर हैं।
सवाल उठता है कि सम्राट चौधरी के बढ़ते कद को देखते हुए उपेन्द्र कुशवाहा ने जल्दीबाजी कर दी। पहली गलती उन्होंने अपनी पत्नी को टिकट देकर किया और दूसरी बड़ी गलती उन्होंने तब कर दी जब अपने बेटे को मंत्री बना दिया।
राजनीति में उचित मौके के इंतजार का भी लाभ मिलता है। सम्राट चौधरी भले उपमुख्यमंत्री बन गए हैं और पद के हिसाब से राजनीतिक कद बढ़ गया है लेकिन न तो लंबे संघर्ष का अनुभव है और न ही वे सर्वमान्य नेता हैं।
दूसरी ओर उपेन्द्र कुशवाहा पढ़े लिखे (प्रोफेसर) हैं। पहली बार उस जन्दाहा विधानसभा क्षेत्र से जीत कर आए थे जो समाजवादी पार्टी का गढ़ था। कांग्रेसी शासन काल में वहां से समाजवादी नेता तुलसी दास मेहता जीतते थे।
राजनीतिक प्रेक्षकों और उपेन्द्र कुशवाहा के समर्थकों का मानना है कि वे पत्नी की जगह अपने किसी कार्यकर्ता को चुनाव लड़ाते। चुनाव बाद जब सरकार में शामिल होने की स्थिति बनी तब अपने बेटे की जगह खुद मंत्री बनते।ऐसी स्थिति में वे आलोचना के शिकार नहीं होते।जब वे खुद मंत्री बनते तो शायद नीतीश कुमार भी इन्हें महत्वपूर्ण विभाग सौंप देते।तब इनका राजनीतिक कद भी बढ़ता और भविष्य की योजना बनाने में मदद मिलती।
लेकिन जल्दबाजी और परिवार मोह में फंसकर उपेन्द्र कुशवाहा सांप-सीढ़ी के खेल में वैसे फंस गए मानो मंजिल करीब हो और सांप के डसने से मंजिल दूर हो गया हो।













