प्रमोद दत्त.
पटना। बिहार विधानसभा चुनाव में 1977 दोहराने की कोशिश हो रही है। भ्रष्टाचार और लोकतंत्र बचाने का मुद्दा भी यही सोचकर बनाया जा रहा है।
लेकिन बिहार में चुनाव अंततः जातीय गोलबंदी के आधार पर ही होगा।
1977 का अपवाद
बिहार के पांच दशकों के चुनावी इतिहास को देखा जाए तो सिर्फ 1977 के चुनाव में लोगों ने जाति से ऊपर उठकर मतदान किया था।
उस समय आपातकाल का ग़ुस्सा और लोकतंत्र को बचाने का लक्ष्य ही मुख्य मुद्दा बना।
तब की परिस्थितियां आज से बिल्कुल अलग थीं।
जेपी के नेतृत्व में असरदार छात्र आंदोलन हो चुका था। तमाम गैर-कांग्रेसी नेता जनता पार्टी में शामिल हो गए थे।
अंतिम समय में कांग्रेस छोड़ने वाले बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनाकर जनता पार्टी के साथ चुनाव लड़ा।
दूसरी ओर, इंदिरा गांधी की तानाशाही छवि वाली कांग्रेस के साथ वाम दल भाकपा खड़े थे।
कांग्रेस विरोधी लहर इतनी तेज थी कि इंदिरा गांधी, संजय गांधी समेत कांग्रेस के तमाम दिग्गज चुनाव हार गए।
हालांकि, दक्षिण भारत में कांग्रेस ने कुछ इज्जत बचा ली, लेकिन हिंदी पट्टी से कांग्रेस का सफाया हो गया।
प्रशांत किशोर की उम्मीदें
जनसुराज के प्रशांत किशोर भी कुछ ऐसी ही उम्मीदें पाले हुए हैं।
वे कहते हैं कि पिछले 35 वर्षों में बिहार की जनता ने दोनों गठबंधनों पर भरोसा कर देखा, लेकिन बिहार की हालत नहीं सुधरी।
नतीजतन, वे महागठबंधन और एनडीए के नेताओं का भ्रष्टाचार उजागर कर लोगों का मोहभंग कराना चाहते हैं।
उन्हें लगता है कि जनता दोनों से आक्रोशित होकर 1977 जैसा माहौल बनाएगी।
उस समय की तरह जाति से ऊपर उठकर मुद्दों पर मतदान होगा।
जातीय गोलबंदी की हकीकत
हालांकि, चुनाव को नजदीक से जानने वाले बताते हैं कि अंततः जातीय गोलबंदी ही निर्णायक होगी।
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, वैसे-वैसे पक्ष और विपक्ष में जातीय गोलबंदी तेज हो जाएगी।
इसी वजह से वे वोटर भी जातीय मोहजाल में फंस जाएंगे, जो अभी मुद्दों से प्रभावित होकर नए विकल्प तलाश रहे हैं।
लालू प्रसाद का कोर वोटर या नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार का कोर वोटर टूटने वाला नहीं है।
कुछ ऐसे वोटर हैं जो अपनी जाति के नेताओं से प्रभावित होकर समय-समय पर शिफ्ट होते रहते हैं।
पीके के पास मुद्दा तो आकर्षक है, लेकिन जातीय वोटों पर असर डालने वाले नेताओं की गिनती सीमित है।
वे केवल अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों को ही प्रभावित कर सकते हैं।
नेताओं की मजबूरी और चेहरों की तुलना
एक तरफ नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के चेहरे हैं।
दूसरी ओर लालू प्रसाद हैं।
जहां तक छवि और प्रशासनिक क्षमता का सवाल है, वहां मोदी-नीतीश भारी पड़ते हैं।
अंततः पूरा चुनाव जातीय गोलबंदी पर ही निर्णायक होगा।
इसी कारण चिराग पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और ओवैसी जैसे नेताओं को अपने पाले में बनाए रखने की मजबूरी दिग्गज नेताओं के सामने है।