फर्क तो है शारदा सिन्हा और अन्य लोकगायकों में

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धनंजय कुमार.

बिहार की मशहूर लोक गायिका शारदा सिन्हा को इस साल के पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया है. इससे पहले 1991 में शारदा सिन्हा जी को लोकगायिकी के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. इन 27 वर्षों में बिहार से कोई भी दूसरा नाम लोकगायिकी के क्षेत्र में इतना बड़ा होकर नहीं उभरा कि उसकी आवाज पद्म सम्मान देनेवालों के कानों तक पहुँच पाए.ऐसी क्या वजह रही कि लोकगायकी में कोई सितारा शारदा सिन्हा की बराबरी भी नहीं कर पाई ?

शारदा सिन्हा से पहले विंध्यवासिनी देवी बिहार के लोकगीत और संगीत में सर्वाधिक मशहूर शख्सियत थीं. सही मायने में वही बिहार की पहली लोकगायक हुईं,जिनको इतनी लोकप्रियता मिली. पहली बार इनके लोकगीतों के रिकार्ड्स जारी हुए और भारत सरकार ने वर्ष 1974 में लोकगायन के लिए ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया. विध्यवासिनी देवी ने बिहार की सभी प्रमुख लोकभाषाओं में गीत गाये. और इसी परम्परा को आगे बढ़ाया शारदा सिन्हा जी ने. उनका पहला अलबम कब निकला यह तो मुझे याद नहीं,लेकिन इतना याद आ रहा है,जब मैं छठी सातवीं में पढ़ रहा था,1979-80 में, और सिकंदरा गया था, वहां मेरे बड़े पिताजी वेटनरी डॉक्टर के तौर पर पोस्टेड थे. पहली ही सुबह मेरी आंख खुली पास के मंदिर में बज रहे एक भजन से, बोल थे, ‘जगदंबा घर में दियरा बार अइनीं हो..’ अच्छा लगा. पता चला यह शारदा सिन्हा का गाया हुआ भजन है. यह भजन जबरदस्त तरीके से मेरे दिल–दिमाग में बस गया था.

इससे पहले लोकगीत या गीत क्या होता है, मुझे पता नहीं था. गीत के नाम पर शादी-ब्याह या छठ आदि अवसर पर गाँव घर की औरतों के गाये गीतों से ही वाकिफ था. फिर टी सीरिज नाम की म्यूजिक कंपनी का उदय हुआ,टेपरिकॉर्डर का उदय हुआ और गांव हो कि शहर, हर जगह शारदा सिन्हा के गीत बजने लगे. शादी-ब्याह से लेकर छठ आदि सभी प्रसंग के गीतों में शारदा सिन्हा मौजूद थीं. गाँव घर की औरतों की जगह टेपरिकॉर्डर और लाउडस्पीकर के माध्यम से शारदा सिन्हा के गीत से मंदिर, घाट, मंडप सब गुलज़ार रहने लगे.

शारदा सिन्हा के गीतों के बाद बालेसर के गीतों का आगमन हुआ, लेकिन बालेसर शारदा सिन्हा की लोकप्रियता से आगे जाने की बात तो दूर आसपास भी नहीं पहुँच आये. वजह थी बालेसर के गीतों में शारदा सिन्हा के गीतों जैसी शालीनता का न होना. हालांकि बालेसर यूपी के थे, लेकिन बिहार में इनकी गायिकी का भी खूब रंग था. घरों में तो नहीं, लेकिन लोअर क्लास मर्दों की महफ़िलों में बालेसर के गीत खूब बजा करते थे. बावजूद इसके शारदा सिन्हा की धमक कम नहीं हुई. शारदा सिन्हा ने पारम्परिक गीतों से लेकर महेंदर मिसिर, भिखारी ठाकुर और नए गीतकारों के गीतों को भी गाया. खुद संगीत भी दिया. कह सकते हैं कि बिहार के लोकगीत संगीत को घर घर तक, जन जन तक पहुंचाया.

यह वो दौर था जब चित्रगुप्त जी के संगीत से सजे भोजपुरी फिल्म गीतों की चमक भी फीकी पड़ने लगी थी. पिया के गाँव, पिया के प्यारी आदि भोजपुरी फिल्मों के माध्यम से फूहड़ गीतों का पसार बिहार में शुरू हो गया था. लेकिन बिहार के लोकगीत-संगीत के प्रति शारदा सिन्हा की निष्ठा ही थी कि उन्होंने कभी फूहड़ गीतों की तरफ कदम नहीं रखे. और शायद शारदा सिन्हा की इसी निष्ठा को भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया. बिहार की लोकगायिका विंध्यवासिनी देवी को 1974 को पहली बार पद्म पुरस्कार दिया गया था और उनके 17 सालों बाद 1991 में शारदा सिन्हा को पद्मश्री सम्मान मिला.

यह सिर्फ शारदा सिन्हा का सम्मान नहीं था, बल्कि बिहार की लोकागायिकी का सम्मान था. 1954 से हर साल पद्म पुरस्कार दिए जा रहे हैं और 1991 तक मात्र दो लोगों को इस लायक समझा गया. और उसके 27 साल वापस शारदा सिन्हा को ही पद्म पुरस्कार के लिए सबसे योग्य माना गया और उन्हें पद्मभूषण दिया गया.पद्मश्री के बाद पद्मभूषण दिया जाना शारदा सिन्हा जी के लिए बेशक गौरव की बात है. बिहार का लोकसंगीत और गीत भी इस सम्मान से गौरवान्वित हुआ है. लेकिन पिछले 27 सालों में कोई दूसरा लोकगायक या लोकगायिका इस सम्मान के काबिल न हो पाया ये दुःख और विचार का विषय है.

शारदा सिन्हा के बाद बिहार में लोकगायक गायिकाओं में कई नाम उभरे, अजीत अकेला, जोगेंदर सिंह अलबेला, देवी, मनोज तिवारी, भरत शर्मा, पवन सिंह और राधेश्याम रसिया आदि उनमें से खूब लोकप्रिय हैं. लेकिन इनमें से किसी को पद्म पुरस्कार के योग्य क्यों नहीं समझा गया ? यह बड़ा प्रश्न है.

इसकी बड़ी वजह रही, ज्यादातर गायकों ने फौरी लोकप्रियता पाने के लिए फूहड़ गीतों का सहारा लिया. और बाद में वही गायक भोजपुरी फिल्मों के नायक बन गए और उनकी दिशा बदल गयी. देवी और भरत शर्मा ने शारदा सिन्हा की लोकगायिकी परम्परा को कायम रखते हुए अपना विस्तार किया जरूर, इनको सफलता भी मिली, घर गाडी और पैसा भी बनाया, लेकिन वो रुतबा हासिल न हो सकी, जो पद्म सम्मान तक ले जाती है. पद्म पुरस्कार पाने के लिए जरूरी है कि आपने उस ख़ास क्षेत्र में कोई विलक्षण काम किया हो. विडम्बना है कि देवी और भरत शर्मा टी सीरिज या ऐसी ही दूसरी म्यूजिक कंपनियों के मकड़जाल में फंस गए और उनके फरमाइशी गीत ही गाते रह गए; लोकगीत संगीत के क्षेत्र में कुछ नया नहीं कर पाए. जबकि शारदा सिन्हा ने लोकगीतों को सम्मान दिलाया.

लेकिन 1991 के बाद शारदा सिन्हा जी ने क्या किया ? वह भी वहीं रुकी रह गयीं, उससे आगे नहीं बढ़ पाईं. जबकि उनसे अपेक्षा थी, लोकसंगीत-गीत को और भी नया आयाम देतीं. फिर भी उन्हें पद्म भूषण के लिए चुना गया, तो मुझे लगता है भारत सरकार के पद्म पुरस्कार चयनकर्ता उसी लोकसंगीत और गीत को आगे बढ़ाने की फरमाइश कर रहे है, जिसके संस्कारों को महेंदर मिसिर, भिखारी ठाकुर, विंध्यवासिनी देवी और शारदा सिन्हा ने संवारा और संजोया. मनोज तिवारी, भरत शर्मा, और पवन सिंह के गीत भले ही आज बाजार में खूब हिट हैं, लेकिन उन्हें वो सम्मान के लायक नहीं समझते. (लेखक धनंजय कुमार फिल्म डायरेक्टर व पटकथा लेखक हैं.)

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