मजदूरों के गुनाहगार और भी हैं…?

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राकेश प्रवीर.

क्या सिर्फ गरीब, दिहाड़ी मजदूर ही समस्याग्रस्त है? क्या और किसी कामगार वर्ग पर लॉकडाउन का प्रभाव नहीं पड़ा है? ऐसा नहीं है भारत में हुए इॅकानोमिक सर्वे 2018-19 के तहत 93% लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इनमें से कुछ लोगों के पास सामाजिक सुरक्षा और औपचारिक अनुबंध भी है और नियोक्ता जॉब सिक्योरिटी के नाम पर पीएफ, ईएसआईसी व अन्य सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराता है।

हजारों रुपया महीना की पगार भी इनके बैंक खाते में जाता है। परन्तु लॉकडाउन के चलते मझौले पूंजीपतियों/उद्योगपतियों/ नियोक्ता वर्ग को भी अपने मुनाफे में सेंध लगने की सम्भावना सताने लगी। उनके द्वारा भी सरकार के आदेशों की अवहेलना करते हुए लॉकडाउन का पैसा काटने, जबरन इस्तीफा मांगने व गैर कानूनी तरीके से नौकरी से निकालने जैसे हथकंडे अपनाते हुए देखे गए। गौर करें, तो मजदूरों की हालिया दुर्दशा के लिए इनका गुनाह भी कम नहीं हैं।

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिकों की कुल संख्या 45.36 करोड़ थी, जो कि वर्तमान में बढ़कर के 50 करोड़ से भी ज्यादा होने का अनुमान है। इनमें से अधिकतर प्रवासी श्रमिक होते है जो कि एक राज्य से दूसरे राज्यों में आजीविका की तलाश में प्रवास करते हैं।

वहीं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज द्वारा वर्ष 2019 में किये गये अध्ययन के अनुसार भारत के बड़े शहरों की लगभग 29 प्रतिशत आबादी दिहाड़ी मजदूरों की बताई गई है। फिर सरकार/नीति नियंताओं से इस तरह की चूक कैसे हो गई?

लॉकडाउन के 62 दिन के बाद भी  जब लाखों प्रवासी श्रमिक सरकारी अव्यवस्थाओं के कारण सड़कों पर ठोकरें खाने को विवश हैं तो शहरों और सरकार दोनों का ध्यान इस ओर गया है।। भारत में 2019-20 के दौरान सरकार के द्वारा पीड़ीएस सिस्टम में बदलाव करते हुए इन्हीं श्रमिकों के हित में वन नेशन वन राशन कार्ड से राज्यों को जोड़ने की घोशणा की गई थी। परन्तु इसका समयबद्ध लागू नहीं हो पाने का खामियाजा उठाते ये प्रवासी श्रमिक भूख से बदहाल लाखों की संख्या में सड़कों, रेल की पटरियों और हाईवे पर चलते नज़र आये।

8 मई के समाचार पत्र और टीवी चैनलों पर एक बहुत ही दुःखद घटना की खबर आई। इसमें औरंगाबाद के नजदीक रेल पटरी पर सोते हुए 15 श्रमिक मालगाड़ी के नीचे आकर असमय मौत के मुंह में समा गए। यह सरकार पर भरोसा खो चुके उन श्रमिकों के सपनों पर अंतिम प्रहार था।

क्यों राज्यों और देश की सरकार अचानक हुए लॉकडाउन का प्रवासी श्रमिकों पर प्रभाव का आंकलन नहीं कर पाई? क्यों जिन्होंने अपने खून-पसीने से महानगरों की समृद्धि के प्रतीक गगनचुम्बी इमारतों को खड़ी की थी, उनकी किसी को सुध नहीं आई? …क्या वे सभी गुनाहगार नहीं हैं? ( राकेश प्रवीर के फेसबुक वॉल से )

 

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