सेक्स और गंदगी में फर्क होता है- कल्पना शाह

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अनूप नारायण सिंह.

मुंबई की रहने वाली कल्पना शाह के पिता फ्लाइट लैफ्टिनैंट हैं.इस वजह से उन की पढ़ाई चंडीगढ़ में ज्यादा हुई. कल्पना शाह को स्कूल के समय से ही ऐक्टिंग करने का शौक था. जब वे 11वीं जमात में थीं, तभी उन्हें दूरदर्शन के लिए बन रहे एक शो में ऐंकरिंग करने का काम मिल गया था. इसे देख कर भोजपुरी फिल्मों के प्रोड्यूसर अशोक चंद जैन ने उन्हें अपनी फिल्म औफर की थी.

नतीजतन, साल 2008 में कल्पना शाह ने अपनी पहली फिल्म ‘जोगीजी धीरेधीरे’ से धमाकेदार शुरुआत की. उन्होंने भोजपुरी फिल्मों के साथ साथ हिंदी फिल्म ‘यारियां’ से शुरुआत की. ‘क्या फर्क पड़ता है-’ हिंदी में आने वाली उन की अगली फिल्म है. तकरीबन 67 फिल्मों में काम कर चुकी कल्पना शाह ने ऐक्टिंग के साथसाथ पंजाब यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन पूरी की.पेश हैं, उन के साथ हुई बातचीत के खास अंश:

स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही आप फिल्मों में आ गई थीं. यह फैसला लेने में परिवार वालों में सब से ज्यादा किस का सहयोग था?

-मेरे भाई ने मुझे पूरा सहयोग दिया. मेरे परिवार में 70 फीसदी डाक्टर और 30 फीसदी पायलट हैं. उन्होंने समझाया कि ऐक्टिंग करने में कोई हर्ज नहीं, पर पहले अपनी पढ़ाई को पूरा करना है. मैंने ऐक्टिंग के साथ साथ पढ़ाई को जारी रखा. मुझे भोजपुरी के साथ हिंदी फिल्में भी करने को मिलीं. भोजपुरी बोली मुझे आती नहीं थी, जिसे मैंने फिल्म में काम करने वाले लोगों की मदद से सीखा.

भोजपुरी फिल्मों में सेक्स बहुत हावी दिखता है.इस बारे में आप क्या सोचती हैं?

-दरअसल, भोजपुरी फिल्मों को बनाने वाले बहुत कम लोग खुद की सोच रखते हैं.ज्यादातर सेक्स प्रधान फिल्में भोजपुरी के गानों पर बनी होती हैं.गायक खुद ही फिल्म का हीरो बन जाता है.गानों के गंदे बोलों को जब हीरो हीरोइन पर फिल्माया जाता है, तो गंदापन खुल कर दिखने लगता है.वैसे, सेक्स और गंदगी में फर्क होता है.सेक्स हिंदी फिल्मों में कम नहीं होता, पर उस को दिखाने का तरीका अलग होता है.

भोजपुरी फिल्मों का बाजार भी काफी बढ़ रहा है. इस के बावजूद इस फिल्म उद्योग की इमेज नहीं सुधर रही है.क्यों?

-भोजपुरी फिल्म बनाने वालों को अपने पर भरोसा नहीं होता. वे हीरो की बातों पर आंख मूंद कर के यकीन करते हैं. उन को लगता है कि हीरो की बात मानने से फिल्म चल जाएगी. दरअसल, हीरो का अपना मकसद होता है.उस का फिल्म के कलाकारों के चुनने तक में दबाव होता है.ज्यादातर हीरो अपने पसंद की हीरोइन रखना चाहते हैं.इस के चलते अच्छे कलाकारों का कैरियर खराब होता है, जिस का असर फिल्मों पर पड़ता है.कलाकारों के चुनने में फिल्म बनाने वालों को ध्यान देना चाहिए.कहानी की मांग में जो फिट बैठ रहा हो, उस को लेना चाहिए.

फिल्मों में गानों खासकर आइटम गीतों की क्या भूमिका होती है?

-भोजपुरी फिल्मों में गानों की अपनी अहमियत होती है.आइटम गीत फिल्म की बिक्री से जुड़ा मुद्दा होता है.दर्शकों पर इस का अच्छा असर पड़ता है.आइटम गीत में गानों के बोल और उस के फिल्मांकन का ध्यान देना जरूरी होता है.मैंने फिल्म ‘ग्रेट हीरो हीरालाल’ में आइटम डांस ‘मर गइनी दैया पाके बलम हलवइयां’ किया था. गाना और उस का फिल्मांकन अच्छा हो, तो वह देखने वालों को अच्छा लगता है.

क्या आप मानती हैं कि इन फिल्मों में ऐक्सपोजर नहीं होना चाहिए?

-फिल्मों में ऐक्सपोजर होगा, क्योंकि दर्शक उसे पसंद करते हैं.यह बात हर तरह की फिल्मों पर लागू होती है.मेरा मानना है कि ऐक्सपोजर फिल्म की कहानी और उस की डिमांड के हिसाब से होना चाहिए. भोजपुरी फिल्मों में ऐक्सपोजर नंगापन की तरह दिखता है.यह फिल्मों की इमेज के लिए ठीक नहीं होता. परिवार ऐसी फिल्मों से दूर हो जाता है.जिस फिल्म की कहानी में ऐक्सपोजर की डिमांड भी नहीं होती, वहां गानों के फिल्मांकन में जबरदस्ती उस को डाल दिया जाता है.

आप को कैसे रोल पसंद हैं?

-रोमांटिक और महिला प्रधान कहानी वाले रोल मुझे बेहद पसंद हैं.अपनी फिल्मों में मैंने हर तरह के रोल किए हैं.

राजनीति के प्रति आप की सोच क्या है?

-मेरा तो यही मानना है कि औरतों को अपनी राजनीतिक सोच रखनी चाहिए. राजनीति में भी अपनी जगह बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए. मुझे कभी मौका मिला, तो जरूरी राजनीति में आऊंगी. मैं मुंबई की एक बस्ती में औरतों और बच्चों की मदद करती हूं. मैं मुंबई में भाजपा मुक्ति महिला मोरचा की पदाधिकारी हूं.

शादी, लव मैरिज होनी चाहिए या अरेंज मैरिज?

-जैसी शादी लड़की और उस का परिवार पसंद करता हो, वैसी शादी होनी चाहिए. इस से शादी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि वह लव मैरिज है या अरेंज मैरिज. शादी वही कामयाब होती है, जहां रिश्तों में भरोसा होता है.

 

 

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