इज्जत नहीं मिलती भोजपुरी कलाकारों को-दिव्या

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अनूप नारायण सिंह.

बिहार के वैशाली जिले की दिव्या द्विवेदी जब मुंबई गई, तब उनके इरादे कुछ और थे, लेकिन अब वे भोजपुरी फिल्मों की भी हीरोइन हैं। उनके करियर की शुरुआत हिंदी फिल्मों से हुई जरूर, लेकिन वे साउथ की ओर भी गई। वहां उन्होंने कुछ तमिल और तेलुगू फिल्में कीं, लेकिन अपने लोगों के बीच दिखने की चाहत उन्हें भोजपुरी फिल्मों में भी ले आई। दिव्या इस बात से दुखी हैं कि आज भोजपुरी फिल्मों को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। उनसे इस बारे में बातचीत।

आप क्या सोच कर आई थीं अभिनय की दुनिया में?

-शुरू में तो मैं डॉक्टर बनना चाहती थी, मगर कंपीट नहीं कर पाई। फिर पटना में थिएटर करने लगी। कई अच्छे नाटकों में काम किया। ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘पंछी ऐसे आते हैं’, ‘रजनीगंधा’ आदि उल्लेखनीय हैं। इन नाटकों ने ही मुझे आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया।

मुंबई आने का अवसर कैसे मिला?

-पटना की एक म्यूजिक कंपनी के लिए मैं कांट्रेक्ट के तहत मुंबई आई थी। फिर लौट कर गई ही नहीं। यहीं की होकर रह गई। संघर्ष तो करना पड़ा। उसी से दुनिया को समझने का मौका मिला। उसी दौरान कई वीडियो एलबम और कई ऐड फिल्में करने को मिलीं। ‘कौन बनेगा करोड़पति 2’ का प्रोमो भी मैंने किया था।

मेहनत का फल मिला या नहीं?

-कुछ चीजें टैलेंट से होती हैं और कुछ भाग्य से। जो चाहा और सोचा, उसे पाना अभी बाकी है, लेकिन उस दौरान मुझे कई हिंदी फिल्में मिलीं, जिन्होंने मुझे निराश किया। अगर असली शुरुआत कहूं, तो फिल्म ‘ये दिल’ से हुई तुषार कपूर के साथ। कई फिल्में करने के बाद लगा कि साउथ की फिल्में करनी चाहिए। तमिल और तेलुगू की कई फिल्में कीं, जो सफल रहीं, मगर मन था हिंदी फिल्मों में काम करने का था।

इन दिनों आप क्या कर रही हैं?

-अभी हिंदी की ‘एवरीथिंग अचानक’ तथा ‘शादी-वादी’ फिल्म कर रही हूं। भोजपुरी की ‘पारो पटनावाली’ आ रही है। इसमें मेरे अपोजिट सुदीप पांडे हैं। इसकी शूटिंग मलेशिया में हुई है।

भोजपुरी फिल्मों की संख्या दिनोंदिन कम होने की वजह बताएंगी?

-चूंकि भोजपुरी अपनी भाषा है, इसलिए उससे लगाव है, मगर यहां काम करना अच्छा नहीं लगता है। एक तो अच्छी स्क्रिप्ट नहीं होती, दूसरे मेकिंग के प्रति लोग सीरियस नहीं होते और तीसरी बात यह है कि भोजपुरी में सम्मान नहीं मिलता। जिस तरह की फिल्में यहां बन रही हैं, उससे दुख होता है। भोजपुरिया समाज सुसंस्कृत है, भाषा भी अच्छी है, लेकिन निर्माताओं ने इसे अश्लील बना दिया है। यही वजह है कि न तो भोजपुरी के कलाकारों को कहीं इज्जत मिलती है और न निर्माताओं को। पढ़े-लिखे लोग तथा महिलाएं भोजपुरी फिल्में देखना पसंद नहीं करते।

आपके हिसाब से कमी कहां है?

-अगर क्रिएटिविटी होती, तो फिल्में अश्लील होने से बच जातीं। यहां इस बारे में लोग कम सोचते हैं। मेकिंग भी निचले दर्जे की होती है। बजट भी कम होता है। ठीक-ठाक बजट वाली फिल्मों में स्क्रिप्ट से ज्यादा फालतू बातों पर ध्यान दिया जाता है। मुझे इसी बात का दुख है।

 

 

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