अद्भुत शिक्षाविद् एवं उद्भट साहित्यकार:डॉ राम खेलावन राय (एक)

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प्रभात कुमार राय.

मेरे पूज्य पिताजी (स्व0 धर्मदेव राय, ग्राम-नारेपुर, जिला-बेगूसराय) से घनिष्ठ मित्रता के कारण तथा पास के गाँव (रानी) के निवासी होने के कारण, डॉ राम खेलावन राय(पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग, पटना विश्वविद्यालय) जब भी अपने गाँव आते थे, मेरे निवास पर अवश्य पधारते थे। उनके आगमन पर स्थानीय साहित्य प्रेमियों का ताँता लग जाता था तथा रोचक साहित्यिक चर्चाएं हुआ करती थी। अपनी विलक्षण मेधा तथा रोबीले एवं प्रखर व्यक्तित्व के धनी राम खेलावन बाबू इलाके में प्रख्यात थे। मैं जब मिड्ल स्कूल का छात्र था तब उन्होंने मुझसे परिचय पूछा। अपना नाम (प्रभात) बताने पर वे मुझसे ’प्र’ उपसर्ग से आरंभ होनेवाले कुछ अन्य शब्दों को बताने को कहा। मैंने प्रबल, प्रदीप, प्रवीण, प्रकाश आदि बताया जिसे सुनकर उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की क्योंकि ये सभी शब्द तेज और ऊर्जा को इंगित करते हैं। हिन्दी साहित्य के इतने बड़े और मर्मज्ञ विद्वान के समक्ष मैं आदर-मिश्रित-भय के कारण नर्वस हो गया था। फलस्वरूप अपने पिताजी का नाम बिना सम्मानसूचक ’श्री’ लगाये बता दिया। वे उबल पड़े। उन्होंने कहाः “यह तो तुम्हारे ’बाप’ का नाम है। अपने ’पिताजी’ का नाम बताओ।“ तब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ।

1964 में उच्च विद्यालय नारेपुर की पत्रिका में छात्रों के बारे में उनका उपदेशात्मक निबंध पढ़ा था जिसका मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। ’उपनिषदों के आदर्श बालक’, पतली कलेवर वाली उनकी किताब भी बचपन में पढ़ने का मौका मिला। यह पुस्तक बाल-साहित्य में श्रेष्ठ स्थान रखता है। प्रेरक लेखों का उद्देश्य बच्चों के चरित्र का निर्माण है। शिक्षा के संबंध में उनके विचार स्पष्ट थे: वे चाहते थे कि बालकों एवं युवाओं को अर्थकरी विद्या पढ़ायी जाय किन्तु उस शिक्षा की जड़ भारतीय दर्शन में हो। जीवन मूल्य की दृष्टि से त्याग, परिग्रह, अनुशासन, संयम और विनय विधार्थियों के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करे। उनकी रचनाओं में संदेश अत्यंत गहरा है और अर्थ व्यापक। कई स्थल पर अपने लेखन में वे मनुष्य के पुरूषार्थ को जगाते हैं। वे यथास्थितिवादी नहीं हैं। अतीत से प्रेरणा और शक्ति ग्रहण कर वे यथास्थिति पर प्रहार करते थे जिससे वर्तमान में हलचल पैदा हो, उथल-पुथल मचे और भविष्य निर्माण में सहूलियत हों। किताबी शिक्षा जीवन की यथार्थ भूमि पर पूर्णतया सफल नहीं होती है। जब जीवन में द्वन्द और संघर्ष आता है, पुस्तक की पंक्तियाँ मस्तिष्क से गायब हो जाती है या अपना शाब्दिक अर्थ बताकर ओझल हो जाती हैं। उनकी दृष्टि में नवीनता का अर्थ प्राचीनता का सर्वथा त्याग नहीं है। उनका मानना था कि हमें अपनी परंपरा के सर्वोत्तम अवयवो का समन्वय पाश्चात्य जगत के सर्वोत्तम गुणों से करना है ताकि पुरातनता और नव्यता में व्याप्त दोषों से अपने को मुक्त रख सकें।

मैंने अपने गाँव एवं विद्यालय में तुलसी जयंती के अवसर पर उनका भाषण दो बार सुना था। तुलसी उनके प्रिय कवि थे। वे तुलसी को भगवान के प्रति समर्पित, लोक-मर्यादा का संवाहक और लोक-मंगल के प्रतिनिधि कवि मानते थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि तुलसीदास अत्यंत संयमी, शक्तिशाली और महान थे। रामचरितमानस में नायिकाएं अनेक हैं, श्रृंगार-वर्णन के भी स्थल अनेक हैं, किन्तु कवि ने कहीं शील का अतिक्रमण होने नहीं दिया।

साठ के दशक में उच्च विद्यालय में उनकी पुस्तक ‘प्रवेशिका निबंधावली’ छात्रों एवं शिक्षकों के बीच काफी लोकप्रिय थी क्योंकि वह लीक से हटकर विशिष्ट शैली में प्रवाहमयी ढ़ंग से लिखा गया था। निबंध लेखन में उन्होंने विशेष ख्याति अर्जित की है। सूत्र वाक्यों का सटीक प्रयोग के कारण निबंध के मुख्य बिंदुओं का सहज स्मरण हो जाता था। मैं विद्यार्थी जीवन के बाद अपने कामकाजी जीवन में भी उनके निबंधों में व्यक्त विचारों को ससम्मान उद्धृत कर अपने कथ्य को विश्वसनीयता प्रदान करने का अभ्यासी रहा हूँ। ‘हमारा गाँव“ शीर्षक निबंध में अपनी बेबाक टिप्पणी के कारण कई स्थानीय लोगों के वे कोपभाजन भी बन गये थे। उन्होंने ग्राम्य जीवन को बहुत निकट से, बारीकी से तथा गहरी आत्मीयता से देखा था। वे अपने कथानकों में सामाजिक विसंगतियों की पड़ताल करते हुए उन कारकों को चिन्हित करते हैं, जिनके कारण वे विसंगतियाँ जनित हुई हैं। वे सदैव अशिक्षा, अंधविश्वास, आर्थिक दैन्य और शोषण आदि को उजागर कर उन्हें समूल नष्ट करने पर बल देते थे। अपने निबंधों में राष्ट्रकवि दिनकर की कविताओं की पक्तियाँ को कई जगह उद्धृत किया है।  वे श्रम की महत्ता को आत्म बल का आधार मानते थे। गाँव में नष्ट होती मानवीय संवेदना और राजनैतिक एवं सांस्कृतिक क्षरण से वे काफी चिंतित रहते थे। अपने निबंध में प्रकृति-चित्रण भी बेजोड़ ढ़ंग से किया है। प्रकृति उनके निबंध में आलंबन और उद्दीपन दोनों रूप में आयी है।

1968 में पटना सायंस कॉलेज में प्राक् विज्ञान में दाखिला के बाद वे मेरे स्थानीय अभिभावक बन गये। उस समय वे वहाँ हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष थे। महान वैज्ञानिक एवं गणितज्ञ, डा0 एन. एस. नागेन्द्रनाथ, जो नोबल पुरस्कार विजेता आयंस्टीन एवं सी.वी.रमण के साथ काम कर चुके थे, पटना सायंस कॉलेज के प्राचार्य थे। उन्हें डॉ राम खेलावन राय हिन्दी सिखाते थे तथा उनको अपना नाम और हस्ताक्षर ना. सु. नागेन्द्रनाथ, के रूप में करने को प्रेरित किया। दक्षिण भारतीय होने के बावजूद डॉ नागेन्द्रनाथ का हिन्दी में काम-काज पर काफी बल था।डॉ नागेन्द्रनाथ प्रो0 राम खेलावन राय का बहुत सम्मान करते थे जिससे ये महाविद्यालय के अन्य प्राध्यापकों के ईश्या के पात्र बन गये थे। विज्ञान के छात्रों द्वारा हिन्दी की पढाई में उचित ध्यान नहीं देना उन्हें सालता रहता था। मुझे उन्होंने स्पष्ट हिदायत दे रखी थी कि हर रविवार को किसी विषय पर संक्षिप्त आलेख लिखकर उन्हें दिखाया जाना है। सचमुच विज्ञान विषयों पर ज्यादा ध्यान एवं समय देने के कारण हमलोग हिन्दी के साथ न्याय नहीं कर पाते थे। निबंध लिखने वक्त यह भय सताते रहता था कि अगर कोई चूक हुई तो डाँट मिलेगी। क्योंकि वे एक-एक शब्द को ध्यान से देखते थे और पूर्ण विराम, अर्द्ध विराम तक उनकी दृष्टि जाती थी। किसी निबंध में मैंने “उज्जवल“ शब्द का प्रयोग किया था। इस पर वे बिफर पड़े। उन्होंने संधि विच्छेद कर बताया कि शुद्ध स्पेलिंग उज्ज्वल है। मेरे चेहरे पर भय-मिश्रित-निराशा को भांपकर उन्होंने कहा कि तुम्हें घबराने की कोई जरूरत नहीं है। देखो, प्रो0 रामतबक्या शर्मा, जो हिन्दी के महान विद्वान थे, ने अपनी डी0लिट् थीसिस में जिसका प्रारूप वे जाँच रहे थे, ठीक यही गलती की है। इससे मुझे भरपूर सांत्वना मिली।

प्राक्-विज्ञान की कक्षा में वे हम सबों को “हिन्दी साहित्य: विविध विधाएं“ तथा दिनकर-रचित ‘रश्मिरथी’ के कुछ अंश पढ़ाते थे। “जीवन“ पर एक निबंध में कई दार्शनिकों एवं चिंतकों का जीवन के संबंध में विचार बताया गया था। उन्होंने तमाम परिभाषाओं के विवेचन के बाद गुरूदेव रवीन्द्र की निम्नलिखित व्याख्या को सर्वश्रेष्ठ बताया था-‘‘मानव के इस दुःख में केवल आंसुओं का मृदुल वाष्प नहीं हृदय का प्रखर तेज भी है। विश्व में तेज पदार्थ है। मानव चित्त में दुःख है। वही प्रकाश है, गति है, ताप है। वही टेढे़-मेढ़े रास्तों से घूम-फिरकर समाज में नित्य-नूतन कर्मलोक और सौंदर्य लोक का निर्माण करता है। कहीं खुलकर तो कहीं छिपकर, दुःख के ताप ने ही मानव संसार की वायु को धावमान रखा है।’’

रश्मिरथी पढ़ाते वक्त वे उदाहरण देकर बड़े ही प्रभावी ढ़ंग से यह बतलाते थे कि भाषा का तेज या प्रवाह प्रसंग के अनुसार किस तरह परिवर्तित होता है। तोड़-मरोड़, प्रचंड प्लावन, दुर्जय प्रहार, झकोर, झंझा, चक्रवात, विशीर्ण आदि शब्दों के जरिए किस तरह दिनकर जी युद्ध का माहौल और कर्ण के रण-कौशल की भयावहता को मूर्त करते है। वे दिनकर जी द्वारा कर्ण के प्रबल आत्मविश्वास और प्रचंड शक्ति के वर्णन करने वाली पंक्तियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे।

राम खेलावन बाबू इस विरोधाभास को प्रमुखता से इंगित करते थे कि समाज में उपेक्षित कर्ण उस पक्ष का समर्थन कर रहा है जिसका विवेक मर गया है। क्या यह कर्ण के लिए न्यायोचित था? दिनकर जी के इस भावनात्मक आवेश को जो उभयनिष्ठता दर्शाता है, वे आलोचना करते थे। वे विलक्षण अध्यापक थे। किसी भी विषय की गहराई में प्रवेश कर उसे साधारण लोगों के समझ का बता देनें में उन्हें महारथ हासिल थी। गूढ़ से गूढ़तर विषय को भी सरल और बोधगम्य बनाने की कला में वे पारंगत थे। वे हमेशा विस्तार और व्यापकता में विचरण करते थे और इस प्रक्रिया में बहुधा विषयांतर हो जाते थे। उनकी खासियत थी कि बोलते समय प्रतिभा का विस्तार किसी भी दिशा में हो और कितना ही हो लेकिन एकाग्रता का तार को टूटने नहीं देते थे। रश्मिरथी पढ़ाने के क्रम में प्रथम क्लास में उन्होंने महाकाव्य, प्रबंध काव्य और खण्ड काव्य की विशेषताएं और अंतर को सोदाहरण विस्तार से बताया था जिसमें महाप्राण निराला की कविताओं का खासकर सस्वर जिक्र किया था। विश्लेषण के समय वे तार्किक ढ़ंग से पुस्तक में वर्णित विचारों पर असहमति भी जताते थे। संस्कृत की उक्तिः “पुस्तके च या विद्या परहस्तेषु यद्धनम। उत्पन्नेषु कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम। (पुस्तक के अंदर की विद्या और दूसरे के हाथ में रखा हुआ धन, समय पड़ने पर काम नहीं आता।“) में विश्वास रखते थे। वे दृढ़ मत के थे कि विद्या पेट या जिह्वा में नहीं, अधरों पर होनी चाहिए। उनके ज्येष्ठ सुपुत्र डॉ रजनी कांत राय बताते हैं कि प्रारंभिक शिक्षा काल में उनके गुरू कमलेश्वरी प्रसाद जी उन्हें यह सिखाया था। वह बार-बार दुहराते थे कि अगर प्रश्नों के उत्तर देने में सोचने की जरूरत पड़ती है तो स्पष्ट संकेत है कि आप को उत्तर मालूम नहीं हैं। कारण, उत्तर के निश्चित रहने पर सही एवं एकमात्र अभिव्यक्ति में विलम्ब कैसा?

साहित्य में प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि आलोचनाओं के विषय में उन्होंने बड़ी बेबाकी से अपनी मान्यताओं को ‘प्रयोग, प्रगति और परंपरा’ पुस्तक में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा में काव्य-प्रवाह, भाव और विचारों की प्रखरता के साथ मौलिकता की छाप है। भाषा की दृष्टि से राम खेलावन बाबू का स्थान समकालीन लेखकों में बहुत ऊँचा था। भावों के अनुकूल प्रभावी शब्दों का सटीक चयन करना उनकी विशेषता थी। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग अत्यंत सुंदर ढ़ंग से किया करते थे। उनकी भाषा रोचक, प्रवाहमयी, जीवंत तथा चित्ताकर्षक थी। इनके निबंधों में सुरूचि-संपन्न, कल्पना, बहुवर्णन के साथ-साथ हास्य-व्यंग के छींटे भी हुआ करते थे। उनकी भाषा में पांडित्य भी था और लालित्य भी। अपने लेखन में किसी परंपरा और शैली का अनुगमन नहीं किया। उनका संपूर्ण लेखन गैर-पारंपरिक, नव्य और अपनी तरह से वाकई अनूठा था। उनकी रचना में शब्द प्रयोग का अद्भुत संयोजन होता था। ज्ञान को संवेदना में स्थानान्तरित करना किसी भी रचना का लक्ष्य होना चाहिए। उनके लेखन में विषयगत विविधता थी। वे जटिल यथार्थ की सूक्ष्म समझ को हृदयग्राही ढंग से व्यक्त करते थे। साहित्य की दुनिया में नाना प्रकार की विकृतियाँ, दुरभिसंधियों और अंतहीन महत्वाकांक्षाओं से वे आहत होते थे। वे सभी विचारधारा के रचनाकारों एवं साहित्य प्रेमियों के बीच समादृत थे। उनका मानना था कि हिन्दी पूर्णरूपेण समृद्ध एवं विकसित भाषा है तथा उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही प्रबल है जितनी विश्व के किसी और समृद्ध भाषा की हो सकती है।(जारी….)

(लेखक बिहार के मुख्यमंत्री के ऊर्जा सलाहकार हैं.)

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