अद्भुत शिक्षाविद् एवं उद्भट साहित्यकार:डॉ राम खेलावन राय (दो)

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प्रभात कुमार राय.

पिताजी बताते थे कि राम खेलावन बाबू बचपन से ही अत्यंत मेधावी, कुशाग्र बुद्धि एवं प्रतिभा संपन्न थे। वे बचपन से ही चश्मा का प्रयोग करते थे। कम उम्र में ही वे एक लेखक के रूप में पहचाने जाने लगे थे। उन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने स्वाभिमान को सदैव अनुप्रेरक रखा। वे बेगूसराय जिले के साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना के प्रेरणा-श्रोत और गौरव स्तंभ थे। रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों का विपुल अध्ययन उन्होंने छात्र जीवन में ही कर लिया था। उनके लिए साहित्य आत्म-परिष्कार का एक माध्यम था। अपने व्यावहारिक कार्यो के साथ शास्त्रों का नियमित अध्ययन, चिंतन सत्संग आदि साधनों को अपनाते हुए परिश्रमपूर्वक शास्त्र एवं साहित्य के तमाम आशयों को अच्छी तरह समझ लिया था। हिन्दी, संस्कृत के प्रायः सभी महारथी शास्त्र एवं साहित्य में उनकी गहरी पैठ का लोहा मानते थे। वे अपने विचारों पर दृढ़ रहनेवाले व्यक्ति थे और प्रतिपक्षी को अपने तर्को से सहमत कराने में विश्वास रखते थे। घोर तार्किकता में आस्था रखने के बावजूद वे आस्तिक और श्रद्धावान थे। वे धार के विरूद्ध तैरनेवाले योद्धा थे तथा अपकीर्ति का परवाह किये बिना उस बात को जरूर बोलते थे जिसे वे उचित समझते थे। डॉ रजनी कांत राय ने बताया कि वे बराबर बाल्मीकि रामायण के निम्न श्लोक का उल्लेख किया करते थे जो रावण द्वारा पाद-प्रहार के उपरान्त विभीषण ने कहा थाः

”सुलभाः पुरूषः राजन सततं प्रियवादिनः।अप्रियस्य य पत्थस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।

उन्होंने इस उक्ति को अपना सूत्र-वाक्य बना लिया था। वे नैष्ठिक पुरूष थे। विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी मनः स्थिति संक्रामक नहीं होती थी वरन् उनकी जिजीविषा दूसरों के लिए प्रेरक शक्ति का काम करती थी। तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना उन्होंने प्रतिभा तथा जुझारूपन से किया। कहा जाता है आस्कर वाइल्ड जब अमेरिका पहुँचे तो चुंगी थाने पर बोले-‘मेरे पास प्रतिभा के अलावा और कुछ नहीं है।’ उन्होंने वसूलों और सिद्धातों से कभी समझौता नहीं किया। वे कर्मठता के अवतार थे। वे एक सुलझे हुए चिंतक और मनीषी थे। लोकजीवन और लोक संस्कृति में गहरी पैठ, बचपन से ही कठोर जीवनानुभव और आत्म-निर्मित व्यक्तित्व के फलस्वरूप अर्जित संवेदनशीलता उनके जीवन को प्रखरता प्रदान करने में अहम भूमिका निभायी। उनके देहावसान पर पिताजी ने अपनी त्वरित टिप्पणी में लिखा था कि भावी पीढ़ी यह कल्पना भी नहीं कर पायगी कि ऐसा प्रखर एवं प्रतिभा-संपन्न व्यक्ति साहित्य जगत में विचरण करता था।

नब्बे के दशक में उनका निबंध गणतंत्र दिवस के अवसर पर ‘हिन्दुस्तान’ दैनिक ने प्रमुखता से प्रकाशित किया था। निबंध में समाप्त हो रहे जीवन-मूल्यों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की गयी थी। वे भारतीयता के प्रति पूर्ण समर्पित थे। उन्हें यह कदापि बर्दाश्त नहीं था कि स्वराज-प्राप्ति के बाद हम अपनी अस्मिता को भुला दें तथा अपनी बहुमूल्य सांस्कृतिक विरासत से अपरिचित होते जाए। उनके अनुसार भारतीय समाज में ऐसा परिवर्तन हो गया है, जिस भारत को लोग सभ्यता का प्रांगण समझते रहे, वहीं आज गरल-वर्षण हो रहा है। उनकी अपेक्षा थी कि साहित्य द्वारा सम्यता की समीक्षा भी होनी चाहिए। लोकतंत्र और षड्यंत्र में सिर्फ शाब्दिक तुकांत ही नहीं मिलती है। लोकतंत्र में होने वाले षड्यंत्रों पर तीखी नजर रखकर उसे उजागर किया जाना है। उन्होंने राजनीति में भी प्रवेश किया लेकिन छल प्रपंच एवं शुचिता का अभाव के कारण उन्हें राजनीति रास नहीं आयी और अपने को अलग कर लिया।

उनकी वाणी का स्वर ओजस्वी था। उनमें प्रखरता, व्यंग और कटाक्ष भी होता था। धारा-प्रवाह भाषण के दरम्यान जो तेज उनकी वाणी में समाया रहता था वह उनके चेहरे पर भी दीप्त हो उठता था। उदाहरण-प्रमाण, तर्क-दलील, हास परिहास, कशाघात आदि उनके भाषणों में घुला रहता था। अपने सिद्धांत पक्ष के समर्थन और प्रतिपादन में ओजस्वी वाणी के साथ विद्वता और वाग्मिता की गहरी छाप श्रोताओं पर छोड़ते थे। एक ही विषय पर कई-कई व्याख्यान देने के क्रम में भी हर बार नए नुक्ते, नई जानकारियाँ देते थे। सचमुच ऐसा लगता था कि उनकी जिह्वा पर साक्षात सरस्वती का वास है। उनकी वाग्मिता के चमत्कार और उक्ति-वैचित्र्य की विद्रग्धता साहित्य क्षेत्र में सदा उद्घृत होती रहेगी। कई भाषणों में मैने पाया कि मंच पर बोलते समय संयत, शांत और आत्मविश्वास से लवरेज होकर एक-एक शब्द का चुनाव और गढ़े हुए वाक्यों को लय में भंगिमाओं के साथ व्यक्त करते थे। उनमें विश्लेषण एवं विवेचन का अद्भुत साम्यर्थ था। ठीक वक्त पर ठीक सूत्र याद आना, व्युत्पन्नमतित्व, स्वर का उचित आरोह-अवरोह,  भंगिमा के साथ कथ्य को प्रस्तुत करना आदि उनकी विशिष्टता थी। उनके कथित का वजन उनके लिखित की तुलना में कहीं ज्यादा था जो उनकी अक्षय ख्याति का आधार है। उनके कटु आलोचक भी इस बात से सहमत हैं कि उनके अल्प लेखन के साथ उनकी विशद वक्तृत्व क्षमता को जोड़ दिया जाय तो उनके विराट कृतित्व का पता चल सकेगा। वे ऐसी तन्मयता से बोलते थे जैसे अपने आपको भूल गये हों तथा श्रोताओं के अंतस् की गहराई में अनूठी सहजता के साथ उतरते थे। वे दक्ष संचालन से किसी भी समारोह को उत्सव में तब्दील कर देते थे। संस्कृत, साहित्य, कला, इतिहास, धर्म और वाड्‐मय आदि अनेक विषयों और ज्ञान की शाखाओं में उनकी पैठ थी और बिना किसी तैयारी के इन विषयों पर अधिकारपूर्वक व्याख्यान दे सकते थे। उनकी प्रभावी वक्तृतता, प्रवाहमान शैली श्रोताओं की स्मृति में तेजी सी आई हुइ नदी के बहाव के रूप में अंकित होती थी। अपने व्याख्यानों में कई हृदयग्राही संस्मरण भी सुनाते थे। अपने विचारों को कारगर और निर्भीक ढ़ंग से अभिव्यक्त करना उनकी मौलिक विशिष्टता थी। किसी प्रसंग की पुनर्प्रस्तुति वह इस मोहक अंदाज में करते थे कि श्रोताओं को वह सदैव याद रहता था। उत्तेजना और आवेग को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्दों के चयन में उनकी वाजीगरी थी।

अस्सी के दशक में योग तथा आयुर्वेद का गहन अध्ययन कर उसका नियमित प्रयोग खुद करने लगे तथा अपने स्नेही मित्रों को स्वस्थ जीवन के लिए नुस्खा भी पत्र के माध्यम से देते थे। उनके पत्रों की विशिष्ट शैली थी। बानगी के तौर पर पिताजी को लिखे गये उनके कुछ पत्रों को उदघृत किया जा रहा हैः

5.11.1984             आदरणीय धर्मदेव बाबू,

सादर नमस्कार,

मैं आपके लिए कतिपय महाऔषधियों का अनुसंधान कर रहा था। अब आपसे निवेदन है, प्रार्थना है, अनुरोध है कि आप निम्नांकित साधन शीघ्रातिशीघ्र, पत्र मिलने के साथ प्रारंभ कर हमें कृपापूर्वक सूचित करें।

साधनाएं इस प्रकार है-सग्गा चिरायता प्रातः-काल में एक पाव जल में भिगोकर छोड़ दें। दूसरे दिन प्रातः काल उसे खौला दे और साफ कपड़े से छानकर चाय के समान गरम रहते पी जाय। प्रातः काल में पुनः उसी समय दूसरा चिरायता जल में भिगोंने के लिए दे दें। चिरायता भिगोंने का काम पीतल या काँसा, तांबे के ग्लास या पात्र में हो। यह सीधे कायाकल्प है। शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने में अनुपम है। रक्त शुद्धि, उदर शुद्धि आदि इसके मुख्य गुण है।………….

स्नेहाकांक्षी

राम खेलावन राय

एक दूसरे पत्र में भी उन्होंने पिताजी को स्वास्थ्य संबंधी सुझाव दिया था।

2.2.1991, आदरणीय धर्मदेव बाबू,

सादर नमस्कार,

यो तो आपका स्वास्थ्य संतोषजनक है, पर मुझे केवल उतने भर से संतोष नहीं है। अतः मेरा निवेदन है कि अभी हाल में आविष्कृत एक रसायन का सेवन आप अविलंब शुरू कर दें। यह अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धि है- जो जिनसिंग नाम कोरियन जड़ी से निर्मित है। कहते हैं इसके लगातार सेवन से उम्र को 20 वर्ष पीछे ले जाता है। प्रयोग प्रारंभ करने के उपरान्त अपना अनुभव लिखने की कृपा करें।

स्नेहाकांक्षी,राम खेलावन राय

अपने शिक्षकों के प्रति उनकी असीम श्रद्धा थी। गुरू-भक्ति में उनकी प्रबल आस्था थी। मिड्ल स्कूल के प्रधानाध्यापक पं0 दीनानाथ झा के बारे में उनकी टिप्पणी इस प्रकार हैः‘‘पंडित दीनानाथ झा सिर से पैर तक शिक्षक थे। अपने घोर अध्यवसाय, उत्कृष्ट चारित्रिक बल, विशाल व्यक्तित्व तथा बच्चों के प्रति सहज स्वाभाविक वात्सल्य भाव के कारण हम छात्रों के हृदय पर निरंकुश शासन करते थे। छात्रों को अपने गुरू सम्राट पर गर्व था। हममें से कोई छात्र अपने इस देवता के विरोध में कुछ भी नहीं सुन सकता था। उनके आदेशों में माँ का दुलार, पिता की थपकी और मित्र का आग्रह, तीनों एक ही साथ मिला-जुला होता था।’’

बाबू श्री कृष्ण सिंह, मिड्ल स्कूल, नारेपुर के शिक्षक, जिनसे सौभाग्यवश मुझे भी पढ़ने का मौका मिला, के बारे मे उनका चित्रण:“बाबू श्री कृष्ण सिंह जिस समय कक्षा में मुस्कुराते या हँसते भी रहते थे, उस समय भी लड़के प्रायः भयाक्रांत रहते थे। वे अध्यापन के क्रम में कभी-कभी अत्यंत मधुर वाणी का भी प्रयोग करते थे, किन्तु उनकी यह मधुरवाणी भय की चासनी से सम्पुटित होकर ही छात्रों के मनः प्रदेश में प्रकट होती थी……… लगता है हम संसार में सबसे अधिक भाग्यवान है कि हमें जीवन के उषा काल में ही ऐसे गुरू मिले जो छोटी सी छोटी त्रृटि को भी अदंडित नहीं छोड़ सकते थे, कि जिनमे नाम स्मरण मात्र से अनजान में भी त्रृटियाँ करने का साहस नहीं होता था“।

राष्ट्रकवि दिनकरजी से प्रो. राम खेलावन राय की अंतरंगता थी। राजेन्द्रनगर (पटना)में पड़ोस में आवास होने के कारण जब भी दिनकर जी पटना में रहते थे राम खेलावन बाबू के साथ साहित्यिक चर्चा किया करते थे। इनसे दिनकर जी का पत्राचार भी होता था। दिनकर जी का एक पत्र जो उनकी मृत्यु के डेढ़ महीने पहले लिखा गया था, उनके घनिष्ठ संबंध को दर्शाता है:

31 सरदार पटेल रोड नई दिल्ली,  4.3.1974

“प्रियवर, तुम्हारी याद रोज आती है। तुम, रजनीकांत और योगेन्द्र गाढे़ वक्त मेरे काम आये। भगवान तुम्हें सपरिवार सुखी रखें। तुम्हारे घर में जो टेलीफोन है उसका नंबर भेज दो। आते जाते कभी अरविंद, रीता आदि से मिल लिया करो।

तुम्हारा

दिनकर

आवेग-संवेग उनके स्वभाव में इस सीमा तक घुल-मिल गया था कि प्रायः उन्हें क्रोधी और अभिमानी भी समझ लिया जाता था। प्रो. राम बचन राय ने अपने आलेख, ‘एक शिक्षक किताबें कंठाग्र कर लेता है’ (हिन्दुस्तान दैनिक में 7.5.2014 को प्रकाशित) लिखा है, ‘प्रो. राम खेलावन राय अपने प्रचंड क्रोध के लिए कुख्यात थे। क्रोधी स्वभाव के कारण वे “परशुराम“ और “दुर्वासा“ के नाम से चर्चित थे।उनका कद छोटा था, मगर क्रोध उनमें इतना ज्यादा था कि छात्रगण आपस में उन्हें ‘लोंगी मिर्च’ कहा करते थे। उन्होंने अपने निबंध में लिखा है, ‘शिक्षा प्राप्त करने की दिशा में जितने प्रेरक तत्व हो सकते हैं, उनमें शिक्षक के प्रति भय की भावना ही व्यक्ति को सम्मान की दृष्टि से देखने के लिए बाध्य करती है। भय ही अनुपस्थिति में आदेशपालन का कार्य संभव नहीं है।’’ उनके क्लास में प्रवेश करने पर जो छात्र ठीक से खड़ा नहीं होता था या खड़ा होने में आलस दिखाता था या देर से कक्षा में प्रवेश करता था, उसे जबर्दस्त डाँट खानी पड़ती थी। दिनकरजी का मत है कि क्रोध साहित्यकार का आवश्यक गुण है। जिसमें क्रोध पी जाने की शक्ति है वह या तो संत है या डिप्लोमेट, जो व्यवहार में वैष्णवी विनम्रता लाकर सबको खुश रखना चाहता है। जिसमें क्रोध नहीं वह बुद्धिजीवी कानफार्मिस्ट हो जायगा और कानफार्मिस्ट होना जीवन का नहीं, उसकी मृत्यु का लक्षण है।    लेकिन उनके क्रोध में कोई दुर्भावना नहीं छिपी रहती थी। मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते समय जब कभी-कभी उनसे लंबे अंतराल के बाद मिलने जाता था तो देखते ही बिफर पड़ते थे तथा कहते थे, ‘तुम दुष्ट हो।“ चेहरे पर उदासी को भाँप तुरत अपने अंदाज में फिर स्पष्ट करते थेः ‘दुरः तिष्ठति सः दुष्टः’। क्रोध के वक्त चेहरे पर सख्तगी थोड़ी ही देर में मुस्कान का रूप ले लेता था। ‘वज्रादपि कठोर-मृदुनि कुसुमादपि’ एक विराट समष्टि कि वे प्रतिमूर्ति थे।

उनके मनोजगत में एक ‘फादर फीगर’ अवस्थित था और अपने इलाके के लोगों के हितैषी और रहनुमा की भूमिका में रहते थे। अपने अंचल के लोगों से स्थानीय भाषा में स्नेहपूर्वक बतियाते थे तथा व्यवहार में गवई आत्मीयता दिखाते थे। उनके घर पर छात्रों, शोधार्थियों, लेखकों तथा विद्वानों का आना-जाना लगा रहता था। रोड नं0-3, राजेन्द्रनगर, पटना एक साहित्यिक तीर्थ बन गया था। उनका परम स्नेह और उदारता अनगिनत शिष्यों के लिए स्मृति रूप में अमूल्य निधि है। अपने समकालीन साहित्यिको के साथ संस्मरण, बतकही एवं साहित्यिक विमर्श का अटूट सिलसिला उनके निवास पर चलता रहता था। विधानुरागियों एवं साहित्य पिपासुओं को अपना समय और श्रम देकर वे पूरी एकाग्रता और तन्मयता के साथ उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करते थे। उन्होंने विद्यार्थियों को उपदेश एवं साहित्य के माध्यम से ज्ञान और जीवन के विभिन्न रूपों से अवगत कराया। वे अपने शिष्यों और मित्रों के लिए बहुत वत्सल थे, जो एक बार उनसे मिला, वह उनका होकर रह गया।

उन्हें सबसे ज्यादा सुकून किताबों के बीच ही मिलता था। किताबें उनके लिए उस घर की तरह थी जहाँ हर-बार आदमी लौटकर जाता है। मैंने उन्हें रेल यात्रा के क्रम में भी तल्लीन होकर पुस्तक पढ़ते देखा है। उन्हें नई-नई पुस्तकें प्राप्त करने, पढ़ने तथा जमा करने का शौक था। जिन लोगों ने उनसे शिक्षा पायी, वे उन्हें अत्यंत उच्च कोटि का शिक्षक मानते हैं। जिन लोगों ने उनके मार्गदर्शन में शोध किया है, वे उन्हें विद्यारण्य का सुयोग मार्गदर्शक मानते हैं, वे कर्तव्यनिष्ठ और कार्य-तत्पर थे। उनके व्यक्तित्व का ध्यान आते ही मेरे मन में ऐसी प्रतिमा खड़ी हो जाती है जो कोमल भी है और कठोर भी, भावुक भी और व्यावहारिक भी, जो कारयित्री और भावयित्री, दोनों प्रतिभाओं से संपन्न है। वे सदा अपने आचरण, अर्जित ज्ञान और विद्वता के माध्यम से हम सबों को अच्छा नागरिक बनने की प्ररेणा देते थे। ऐसे मनीषी का जितना भी स्नेहपूर्ण सान्निध्य मिल पाया, उसे मैं अपना परम सौभाग्य और अपने जीवन की उपलब्धि मानता हूँ।वे बिहार की साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना के प्ररेणा-स्रोत और गौरव-स्तंभ थे। दरअसल राम खेलावन बाबू एक व्यक्ति नहीं संस्था थे। वे जीवंत संस्मरण-कोष थे। वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके बौद्धिक अवदान से आने वाली पीढ़ियाँ निरंतर उपकृत होती रहेगी।(समाप्त)(लेखक बिहार के मुख्यमंत्री के ऊर्जा सलाहकार हैं.)

 

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