मैं हूं गांधी मैदान..

2554
0
SHARE

SANSKRITI 2 (1)

रिंकू पाण्डेय

ये क्या बात हुई यार. जब चाहे तब अपनी मर्जी से. किसी वक्त. दिन हो या रात. सुबह हो या शाम. मेरे सीने में घाव कर जाते हो. मुझे तो कभी-कभार कोफ्त होती है. मैंने क्यों दिया तुम्हें इतना स्पेस. इतनी हरी-भरी अपनी छाती. जिसपर सुबह से शाम तक तुम्हारी अठखेलियां चलती रहती हैं. बच्चे हो या जवान सुबह शाम जैसे लगता है मेरे सीने पर लोटना तुम्हारी रूटीन में शुमार है. मैं भी खुश होता हूं. मुझे भी लगता है. चलो कहने को तो मैं एक मैदान हूं. लेकिन मेरा भी एक परिवार है. आजकल जिसे देखो प्रचंड बहुमत के उद्दंड रथ पर सवार होने के लिए मेरे सीने का सहारा लेता है. जब देखो तब कोई तेली अधिकार रैली,कोई कायस्थ अधिकार रैली, कोई स्वाभिमान रैली,कोई कार्यकर्ता समागम तो कोई हुंकार रैली करते रहता है. बीना मेरा दर्द जाने, हजारों बांस बल्लियों को मेरे सीने पर ठोक डालते हैं. मुझे खोदते भी हैं. मिट्टी निकालते हैं. और वहां अपना और अपनी पार्टी द्वारा लाया गया बास का बल्ला ठोक डालते हैं. ये क्या है भई. मुझे भी एहसास होता है. मुझे भी दर्द होता है. मैं आन-बान और शान हूं बिहार का. राजधानी पटना का मैं मुकुट हूं. जिसपर पूरा बिहार गर्व करता है. मेरे सीने में क्रांति,सरोकार,दर्द,आंदोलन और स्वतंत्रता जैसे शब्द हलचल मचाए रहते हैं.

राजधानी पटना के बीचो-बीच सदियों से सीना चौड़ा किए यहां हूं. मैं जेपी की क्रांति से लेकर अनेक जनसभाओं और आंदोलनों का गवाह रहा हूं. जेपी का जनआंदोलन मेरे सीने पर शुरू हुआ और जनसरोकार में बदला. द्वितिय विश्वयुद्ध के सैनिकों के जुते मेरी छाती पर खड़े रहे. लेकिन मैं तनिक भी डिगा नहीं. कितने समकालीन नेताओं की राजनीतिक पाठशाला मेरे सीने पर शुरू हुई. वे सियासत के सिरमौर भी बने. मेरे चारों ओर सैकड़ों की संख्या में ठेले और खोमचे वाले,अस्थाई सैलून वाले अपनी दुकान सजाकर अपना पेट पालते हैं. लेकिन कभी कभार राजनीतिक स्वार्थ और असमाजिक तत्वों का दिया घाव मुझे सालता है. मन की बात से देश का दिल जीतने का दावा करने वाले मोदी आए मेरे सीने पर हुंकार भरने, लेकिन ऐसा दर्द दे गए जिसकी टीस मुझे सदियों तक सालता रहेगा. उनके हुंकार के दुश्मनों ने मेरे सीने पर विस्फोट जैसा घाव दे दिया. मुझे नहीं मालूम ये किसकी करतूत थी. लेकिन सीना तो मेरा छलनी हुआ. मैं ये सारी बातें इसलिए कह रहा हूं. एक बार फिर चुनाव आने वाला है. मेरा दिल अभी से धड़क रहा है. मुझे विस्फोट के बाद वो दिन याद है जब मेरे आसपास अपनी गुपचुप की दुकान चलाकर अपने परिवार की गाड़ी खींचने वाले शंकर और अकबर मैदान के बाहर निकाल दिए गए थे. इन बेचारों का कोई दोष नहीं था. इन्हें बस दो जून की रोटी चाहिए थी. इन्हे तो सत्ता और सियासत का एबीसीडी भी मालूम नहीं. लेकिन विस्फोट के बाद जैसे इन्हें सांप सूघ गया था.

                   जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ो का नारा दिया तो देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को 9 अगस्त को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया. उसके विरोध में 10 अगस्त को मेरी ही छाती पर अंग्रेजों के खिलाफ हजारों लोगों ने ताने-बाने बुने. 1974 के आंदोलन में 72 साल के जयप्रकाश को मैने यहां शरण दी थी. लेकिन किसी को किसी बात का लिहाज नहीं. बस सब मुझे घाव पर घाव देते हैं. मैं पूछना चाहता हूं सियासत के रंगरेजों से कि मेरा रंग वे बदरंग क्यों करते हैं. जब मेरी छाती पर साल में एक बार शब्दों का मेला लगता है और पुस्तकों की दुनियां गुलजार होती है तो दिल बाग-बाग हो जाता है. लेकिन हुंकार रैली की विस्फोट के बाद से जैसे ही किसी रैली और रैला की बात मैं सुनता हूं. मेरे सीनें में आग धधकने लगती है. मेरे जरिए हजारों लोग आज अपने सपने को परवान देते हैं. मैं सबके दुख-सुख का साथी हूं. हाल में भूकंप के बाद अपनी गोद में मैंने कितने परिवारों को शरण दी. लोगों ने आसमान में सपनों के तारे गिनते हुए अपनी रात सुकून से बिताई.

जब स्वार्थ की चाशनी में सेवा को लपेटकर राजनेता अपने लिए सत्ता हथियाते हैं तो दिन रात मेरे कानों में सत्ता और स्वार्थ के नारे गुंजने लगते हैं. मैंने कितनों को इसी मैदान से उपाधियां दिलवाई,सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया लेकिन आज मेरा दर्द समझने वाला कोई नहीं.

स्वतंत्रता और गणतंत्रता का एहसास मुझसे ज्यादा किसे होगा. तिरंगा मेरी छाती पर लहराता है. मैं मुस्कुराता हूं. लेकिन मुझे अपनी वर्तमान हालत पर रोना आता है. क्योंकि अब मैं जंजीरों और लोहे के बाड़े से घिरा हूं. इंसान रहता तो अपनी आजादी के लिए जंग छेड़ देता. लेकिन मेरी सुरछा के नाम पर मुझे लगता है लोगों ने कैद कर दिया है. मुझे खुला-खुला होना अच्छा लगता है. मैं खुला होता तो रावण दहन में दर्जनों लोग काल के गाल में नहीं समाते और मैं मस्त मौल रावण को जलते हुए देखता. लेकिन अब तो डर लगता है….जब लोग भारी संख्या में जुटते हैं मैं डर जाता हूं. हाल के दिनों में कुछ लोगों ने मेरे सीने पर पेड़े पौधे लगाने शुरू कर दिए हैं. मुझे अच्छा लगता है. काश उनका ये प्रयास जारी रहे और मैं यू ही मुस्कुराता रहूं.

LEAVE A REPLY